khatarwa parv of uttarakhand : पशुधन को समर्पित उत्तराखंड लोक त्योहार खतड़वा

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khatarwa parv of uttarakhand : पशुधन को समर्पित उत्तराखंड लोक त्योहार खतड़वा
khatarwa parv of uttarakhand : पशुधन को समर्पित उत्तराखंड लोक त्योहार खतड़वा

Kumaoni Lokparva Khatduva : कूर्माचल के बहुत से लोगों में यह साधारण विश्वास है कि किसी आश्विन संक्रान्ति को कुमय्यों ने गढ़वाल को जीता था. इसके उपलक्ष्य में प्रत्येक बरस उस दिन कुमय्ये लोग होली (खतड़वा )जलाते हैं.


गाईत्यार या गौ त्यार जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है।गायों को समर्पित एक त्यौहार। कुमाऊं के पर्वती भू भाग में मनाए जाने वाला यह त्यौहार मूल रूप से गायों को समर्पित है। क्योंकि पर्वती भू भाग में कोई बड़े उद्योग धंधे ना होने के कारण वहां पर लोगों का मुख्य व्यवसाय खेती करना व पशु पालना ही है ।

Kumaoni Lokparva Khatduva : खतड़वा या गाईत्यार

उनका पूरा जीवन इन्हीं दो चीजों पर आधारित है। या यूं कह सकते हैं कि किसान की सबसे अमूल्य संपत्ति उसका पशु और उसकी भूमि ही होती है। इसीलिए इन जगहों पर प्रकृति और पशुओं से संबंधित अनेक त्यौहार समय-समय पर या ऋतु परिवर्तन के वक्त मनाए जाते हैं। जिनके कई वैज्ञानिक आधार भी हैं ।लेकिन उन त्योहारों को एक लोक पर्व के रूप में मनाया जाता है।

‘कुमाऊं का स्वच्छता अभियान से जुड़ा ‘खतडुवा’ पर्व वर्षाकाल की समाप्ति और शरद ऋतु के प्रारंभ में कन्या संक्रांति के दिन आश्विन माह की प्रथमा तिथि को मनाया जाने वाला एक सांस्कृतिक लोकपर्व है।

Kumaoni Lokparva Khatduv :  अन्य त्योहारों की तरह ‘खतड़ुवा’ भी एक ऋतु से दूसरी ऋतु के संक्रमण का सूचक है। प्रारंभ से ही यह कुमाऊं, गढ़वाल व नेपाल के कुछ क्षेत्रों में मनाया जाने वाला पारंपरिक त्यौहार रहा है।

‘खतड़ुआ’ शब्द की उत्पत्ति “खातड़” या “खातड़ि” शब्द से हुई है। कुमांऊं में ‘खातड़’ रजाई-गद्दे को कहा जाता है। चौमास में सिलन के कारण ये सभी रजाई-गद्दे आदि बिस्तर सिल जाते हैं। इसलिए खतुड़वे के दिन प्रातःकाल ही घर की सभी वस्तुओं को इस दिन धूप दिखाकर सुखाया जाता है।

गौरतलब है कि अश्विन मास की शुरुआत (सितम्बर मध्य) से पहाड़ों में जाड़ा धीरे-धीरे शुरू हो जाता है। यही वक्त है जब पहाड़ के लोग पिछली गर्मियों के बाद प्रयोग में नहीं लाये गए और बरसात में सीलन खाए बिस्तरों और गर्म कपड़ों को निकाल कर धूप में सुखाते हैं और पहनना शुरू करते हैं। इस तरह यह त्यौहार वर्षा ऋतु की समाप्ति के बाद आश्विन मास की संक्रांति पर शीत ऋतु के आगमन का सूचक है।

खतड़ुवा उत्तराखंड (Kumaoni Lokparva Khatduva) में सदियों से मनाया जाने वाला पशुओं की स्वच्छता और उनके स्वास्थ्य रक्षा से संबंधित त्यौहार भी है।इस त्यौहार के दिन कृषक समाज के लोग गांवों में अपने पशुओं के गौ शालाओं (गोठ) की विशेष रूप से साफ सफाई करते हैं।चौमासे में गोशालाओं में कुछ ज्यादा ही गंदगी बढ़ जाती है।

वहां सीलन की वजह से कीड़े मकोड़े पशुओं के स्वास्थ्य के लिए हानिकारक सिद्ध होते हैं।इसलिए भादों मास के अंतिम दिन गाय की गोशाला को साफ किया जाता है। पशुओं को नहलाया धुलाया जाता है। पशुओं के गोठ में मुलायम पिरूल की घास बिछाई जाती है।

पशुओं को पकवान इत्यादि खिलाए जाते हैं। कई इलाकों में इस दिन महिलाएं पशुओं के लिए खास प्रकार की पौष्टिक हरी-भरी घास जंगलों और खेतों से काट कर लाती हैं और उन्हें भर पेट घास खिलाते हुए यह लोकगीत भी गाती हैं-

“औंसो ल्यूंलो ,बेटुलो ल्योंलो,

गरगिलो ल्यूंलो,गाड़-गधेरान है ल्यूंलो,

तेरी गुसै बची रओ,तै बची रये,

एक गोरू बटी गोठ भरी जाओ,

एक गुसै बटी त्येरो भितर भरी जौ..”

khatarwa parv of uttarakhand : पशुधन को समर्पित उत्तराखंड लोक त्योहार खतड़वा
khatarwa parv of uttarakhand : पशुधन को समर्पित उत्तराखंड लोक त्योहार खतड़वा

अर्थात् “मैं तेरे लिए अच्छी-अच्छी घास जंगलों व खेतों से ढूंढ कर लाऊंगी। तू भी दीर्घायु होना और तेरा मालिक भी दीर्घायु रहे। तेरी इतनी वंश वृद्धि हो कि पूरा गोठ (गोशाला) भर जाए और तेरे मालिक की संतान भी दीर्घायु हो।”

खतुड़वा त्योहार एक लोक सांस्कृतिक त्योहार होने के कारण इसके मनाने के अलग अलग तरीके प्रचलित हैं।प्रायः आश्विन संक्रांति के दिन सायंकाल तक लोग आपस में निश्चित एक बाखलि पर या चौराहे पर एक लंबी लकड़ी गाडते हैं

और दूर-दूर से लाये सूखी घास लकड़ी झाड़ी जैसे पिरुल, झिकडे इत्यादि को उसके आस-पास इकट्ठा कर एक पुतले का आकार देते हैं। इसे ही कुमाऊं में ‘खतडू’ (Kumaoni Lokparva Khatduva) कहा जाता है।


कहीं कहीं इस त्यौहार के ठीक एक दिन पहले जंगल से कांस के पौधों को फूल सहित काटकर लाया जाता है। फिर उसको एक बुड़िया (बूढ़ी महिला) की मानव आकृति में ढाला जाता है। तथा उसके गले में फूलों की मालाएं डालकर उसे घर के पास गोबर के ढेर के ऊपर गाढ़ दिया जाता है।

कुछ इलाकों में शाम के समय घर की महिलाएं एक मशाल जलाकर,जिसे ‘खतड़ुवा’, कहते हैं उसे गौशाला के अन्दर बार-बार घुमाती हैं और भगवान से इन पशुओं की दुःख-बीमारियों को दूर रखने के लिए प्रार्थना की जाती है।और उसके बाद गांव के बच्चे किसी चौराहे पर जो गांव का केंद्र हो। वहां पर

जलाने लायक लकड़ियों का एक बड़ा ढेर लगाते हैं इस लकड़ियों के ढेर में विभिन्न गोशालाओं से लाई गई ‘खतड़ुआ’ (Kumaoni Lokparva Khatduva) की जलती मसालें समर्पित की जाती हैं। कहीं कहीं लकड़ियों के ढेर को पशुओं को लगने वाली बिमारियों का प्रतीक मानकर ‘बुढी ‘जलाने का रिवाज भी है। इस ‘बुढी’ को गाय-भैंस और बैल जैसे पशुओं को लगने वाली बीमारियों का प्रतीक माना जाता है,

जिनमें ‘खुरपका’ और ‘मुंहपका’ नामक पशुओं पर लगने वाले रोग मुख्य हैं। गांव वासी अपने अपने अपने पशु गोठों (गोशालाओं) से जलती हुई खतुड़वा (Kumaoni Lokparva Khatduva) की मशालें लाकर इस चौराहे पर लगे ‘बुढी’ खतड़ुआ के ढेर पर डाल देते हैं और बच्चे जोर-जोर से चिल्लाते हुए गाते हैं –

भैल्लो जी भैल्लो,भैल्लो खतडुवा..

गै की जीत, खतडुवै की हार..

भाग खतड़ुवा भाग..”

अर्थात गाय की जीत हो और पशुधन पर लगने वाली बीमारी ‘खतड़ुआ’ की हार हो। इसके बाद खतड़वे की राख को सभी लोग अपने-अपने माथे पर लगाते हैं तथा साथ ही साथ यही राख सभी पशुओं के माथे पर भी लगाई जाती है।ऐसा माना जाता है कि इस जलते हुए खतड़वे के साथ साथ उनके पशुओं के सारे रोग व अनिष्ट भी इसी के साथ खत्म हो गए।

इस समय पर पहाड़ों में बहुत अधिक मात्रा में होने वाली ककड़ी (खीरा ) को प्रसाद स्वरूप वितरण किया जाता है। खतडवे को जलाते वक्त उसमें से कुछ अग्नि की मशालें को लेकर गाय के गोठों में भी घुमाया जाता है।और उसके धुए को कुछ समय के लिए गोठों में भर दिया जाता है जिससे कि उस जगह से कई प्रकार के कीड़े मकोड़े भाग जाते हैं तथा दीमक का नाश हो जाता है।

khatarwa parv of uttarakhand : पशुधन को समर्पित उत्तराखंड लोक त्योहार खतड़वा
khatarwa parv of uttarakhand : पशुधन को समर्पित उत्तराखंड लोक त्योहार खतड़वा

Kumaoni Lokparva Khatduva : इस प्रकार ‘खतड़ुआ’ का यह त्यौहार पशुधन को स्वस्थ रखने और उनके रहने वाले गोशालाओं की सफाई से जुड़ा एक प्रमुख वार्षिक अभियान है।

पर विडम्बना यह है कि चंद राजाओं के काल में जो सामंती युद्ध लड़े गए उनकी संकीर्ण मानसिकता की इतिहास चेतना की भेंट यह पशुधन की सुरक्षा से जुड़ा ऋतुवैज्ञानिक त्योहार खतुड़वा भी चढ़ गया।

यही कारण है कि कुमाऊं और गढ़वाल की सामंतवादी युद्धचेतना के तहत इस खतुड़वा त्योहार को वर्त्तमान में कुमाऊं का विजयोत्सव माना जाने लगा। इतिहासकार प्रो.डीडी शर्मा की पुस्तक ‘उत्तराखंड ज्ञानकोष’ के अनुसार यह कुमाऊनी सेना की उस विजय का स्मारक है जो कि उसने गढ़वाल की सेना पर प्राप्त की थी।

Kumaoni Lokparva Khatduva : इस युद्ध में कुमाऊनी सेना का नेतृत्व गैड़ा सिंह और गढ़वाली सेना का नेतृत्व खतड़ सिंह कर रहा था। इसमें खतड़ सिंह की पराजय हुई थी। ब्रिटिश इतिहासकार एटकिंशन और डॉ.मदन चंद्र भट्ट के अनुसार यह युद्ध चम्पावत के राजा रुद्रचन्द के पुत्र लक्ष्मण चन्द और गढ़वाल के शासक मानशाह की सेनाओं के बीच 1608 ई. हुआ था।


एक मान्यता के आधार पर कहा जाता है। कि कुमाऊनी सेना के गैडा़ सिंह ने गढ़वाली सेना के अपने प्रतिद्वंदी खतड़ सिंह को पराजित कर गढ़वाली सेना को पीछे हटने को मजबूर कर दिया था।

इस सम्बंध में एक दूसरी किंवदंती यह भी प्रचलित है कि खतड़सिंह नामक गढ़वाली सेनापति कुमाऊं को जितने के लिए आया तो कुमाऊं के राजा रुद्रचंन्द्र ने गाय-बैलों के झुंड से खतड़सिंह को हरा दिया।इससे सम्बंधित एक

लोकगीत भी प्रसिद्ध है-

“भेल्लो जी भेल्लो।

गैड़ा की जीत खतड़ुवा की हार।

भाजो खतड़ुवा धारे धार।

गैड़ा पड़ो श्योव खतड़ुवा पड़ो भ्योव।।”

 Kumaoni Lokparva Khatduva : तभी से ‘खतड़ुऐक हार गाइक जीत’ का यह किस्सा ‘खतुड़वा’ से जुड़ गया और इस त्योहार के साथ सदियों से पशु संरक्षण की भावना कहीं गायब हो गई।

परन्तु ऐतिहासिक दृष्टि से देखा जाए तो यह घटना अविश्वसनीय और आश्चर्यपूर्ण लगती है कि जिस रुद्रचंद्र देव ने अपनी वीरता से अकबर की सेना को हराया हो उसके सेनापति गैंडा सिंह ने किसी गढ़वाल के सेनापति खतड़ सिंह को गाय बैलों से हरा दिया। यदि यह वास्तविक घटना होती

तो इसका जिक्र रुद्रचंद्र के किसी ताम्रपत्र या अन्य किसी ऐतिहासिक दस्तावेज में अवश्य मिलता। दरअसल,यह कुमाऊं और गढ़वाल के मध्य वैमनस्य पैदा करने का भ्रामक प्रचार है।

गढ़वाली या कुमाऊनी इतिहास में न तो इस तरह के किसी युद्ध और न ही इस इस तरह के किसी सेनापतियों के नाम दर्ज हैं।इसलिए यह बात सिर्फ द्वेषभावना से प्रेरित एक मिथ्या प्रचार ही कही जा सकती है।

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