Subhash Chandra Bose Jayanti 2021 : सुभाष चंद्र बोस की जयंती को पराक्रम दिवस के रूप में मनाया जाएगा

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Subhash Chandra Bose Jayanti 2021 : सुभाष चंद्र बोस की जयंती को पराक्रम दिवस के रूप में मनाया जाएगा
Subhash Chandra Bose Jayanti 2021 : सुभाष चंद्र बोस की जयंती को पराक्रम दिवस के रूप में मनाया जाएगा
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सुभाष चंद्र बोस की जयंती को पराक्रम दिवस (parakram diwas) के रूप में मनाया जाएगा

Subhash Chandra Bose Jayanti 2021 : Netaji Subhash Chandra Bose birth anniversary

भारत सरकार ने महान स्वतंत्रता सेनानी और आजाद हिंद फौज के संस्थापक नेताजी सुभाष चंद्र बोस (Netaji Subhash Chandra Bose) की 125वीं जयंती को राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर मनाने का निर्णय लिया है,

पराक्रम दिवस – parakram diwas

जो 23 जनवरी, 2021 से शुरू होगा। भारत सरकार ने उनके जन्मदिन (23 जनवरी) को हर साल “पराक्रम दिवस” (parakram diwas) के रूप में मनाने का निर्णय लिया है, ताकि देश के युवाओं को नेताजी की तरह ही विपत्ति में धैर्य के साथ काम करने के लिए प्रेरित किया जा सके तथा युवाओं में देशभक्ति की भावना का संचार किया जा सके।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी नेताजी सुभाष चंद्र बोस (Netaji Subhash Chandra Bose) के 125वें जयंती समारोहों (parakram diwas) की शुरुआत 23 जनवरी को कोलकाता के ऐतिहासिक विक्टोरिया मेमोरियल हॉल से करेंगे.

नेता जी से जुड़े कार्यक्रमों (parakram diwas) का आयोजन सालभर किया जाएगा. नेताजी सुभाष चंद्र बोस आजाद हिंद फौज के संस्थापक होने के साथ ही भारत की स्वतंत्रता में अहम भूमिका निभाने वाले लोगों में से एक थे

कैसी थी नेताजी द्वारा तैयार की गई फौज ? आखिर ये फौज कितनी ताकतवर थी? तो चलिए जानते हैं आजाद हिंद फौज के बारे में खास बातें।

नेताजी का एक मात्र लक्ष्य था कि भारत को आजाद कराया जाए । वो किसी भी कीमत पर अंग्रेजों से किसी भी तरह का कोई समझौता नहीं करना चाहते थे।

गाँधी जी के विरोध के कारण नेताजी ने कांग्रेस अध्यक्ष पद से दे दिया त्यागपत्र 

शुरुआत में नेताजी महात्मा गांधी के साथ देश को आजाद कराने की मुहिम से जुड़े रहे, और 19 फ़रवरी, 1938 को ‘भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस’ के ‘हरिपुरा अधिवेशन’ में नेताजी सुभाषचन्द्र बोस को अध्यक्ष चुना गया।

1939 ‘फ़ारवर्ड ब्लॉक’ नाम की एक नई पार्टी बनाई

फिर ‘त्रिपुरा अधिवेशन’ में सर्वसमति से नेताजी एक बार फिर कांग्रेस का अध्यक्ष चुने गए। परन्तु गाँधी जी के विरोध के चलते उन्होंने कांग्रेस के अध्यक्ष पद से त्यागपत्र दे दिया . इसके बाद नेताजी ने 1939 ‘फ़ारवर्ड ब्लॉक’ नाम की एक नई पार्टी भी बनाई ,

सुभाष चंद्र बोस को नजरबन्द किया गया 

1939 ई. को द्वितीय विश्वयुद्ध प्रारम्भ हुआ। सुभाष चंद्र बोस ने भारत को द्वितीय विश्व युद्ध में शामिल किए जाने का विरोध किया, तो अंग्रेजों ने उन्हें जेल में डलवा दिया। लेकिन सुभाष जेल में निष्क्रिय रहना नहीं चाहते थे।

सुभाष चंद्र बोस का आमरण अनशन

सरकार को उन्हें रिहा करने पर मजबूर करने के लिये सुभाष ने जेल में आमरण अनशन शुरू कर दिया। हालत खराब होते ही सरकार ने उन्हें रिहा कर दिया। मगर अंग्रेज सरकार यह भी नहीं चाहती थी कि सुभाष युद्ध के दौरान मुक्त रहें। इसलिये सरकार ने उन्हें उनके ही घर पर नजरबन्द करके बाहर पुलिस का कड़ा पहरा बिठा दिया।

आज़ाद हिंद फौज की कमान सुभाष चंद्र बोस के हाथों में

इसी दौरान सुभाष चंद्र बोस जर्मनी भाग गए और वहां जाकर युद्ध मोर्चा देखा और साथ ही युद्ध लड़ने की ट्रेनिंग भी ली। यहीं नेताजी ने सेना का गठन भी किया। जब वो जापान में थे, तो आजाद हिंद फौज के संस्थापक रासबिहारी बोस ने उन्हें आमंत्रित किया।

डॉक्टर राजेंद्र पटोरिया अपनी किताब ‘नेताजी सुभाष’ में लिखते हैं कि, “4 जुलाई 1943 को सिंगापुर के कैथे भवन में एक समारोह में रासबिहारी बोस ने आज़ाद हिंद फौज की कमान सुभाष चंद्र बोस के हाथों में सौंप दी।”

इसके बाद नेताजी ने इस फौज के सर्वोच्च सेनापति की हैसियत से स्वतंत्र भारत की अस्थायी सरकार बनाई, जिसे कोरिया, चीन, जर्मनी, जापान, इटनी और आयरलैंड समेत नौ देशों ने मान्यता भी दी।

सुभाष चंद्र बोस ने ऐसे किया था आजाद हिंद फौज का गठन

सुभाष चंद्र बोस ने आजाद हिंद फौज को काफी शक्तिशाली बनाया और आधुनिक रूप से फौज को तैयार करने के लिए जन, धन और उपकरण जुटाए। यहां तक कि नेताजी ने राष्ट्रीय आजाद बैंक और स्वाधीन भारत के लिए अपनी मुद्रा के निर्माण के आदेश दिए।

सुभाष चंद्र बोस की फौज में महिला रेजिमेंट 

सुभाष चंद्र बोस ने अपनी फौज में महिला रेजिमेंट का गठन किया था, जिसे रानी झांसी रेजिमेंट भी कहा जाता था। इसकी कमान कैप्टन लक्ष्मी स्वामीनाथन को सौंपी गई थी।
सुभाष चंद्र बोस ने ‘फॉरवर्ड’ नाम से पत्रिका के साथ ही आजाद हिंद रेडियो की भी स्थापना की और जनमत बनया। इसके माध्यम से वो लोगों को आजाद होने के प्रति जागरूक करते थे।

आजाद हिंद फौज का आत्मसमर्पण

कोहिमा और इंफाल के मोर्चे पर कई बार इस भारतीय ब्रिटेश सेना को आजाद हिंद फौज ने युद्ध में हराया। लेकिन जब द्वितीय विश्व युद्ध समाप्त होने के बेहद करीब था, तभी 6 और 9 अगस्त 1945 को अमेरिका ने जापान के दो शहर हिरोशिमा और नागासाकी पर एटम बम गिरा दिये।

इसमें दो लाख से भी ज्यादा लोग मरे थे। इसके तुरंत बाद जापान ने आत्मसमर्पण किया। जापान की हार के साथ बेहद कठिन परिस्थितियों में आजाद हिंद फौज ने आत्मसमर्पण कर दिया और फिर इन सैनिकों पर लाल किले में मुकदमा भी चलाया गया।’

आजाद हिन्द फौज पर मुकदमा 

नवम्बर 1945 में दिल्ली के लाल किले में आजाद हिन्द फौज पर चलाये गये मुकदमे ने नेताजी के यश में वर्णनातीत वृद्धि की और वे लोकप्रियता के शिखर पर जा पहुँचे। अंग्रेजों के द्वारा किए गये

विधिवत दुष्प्रचार तथा तत्कालीन प्रमुख राजनीतिक दलों द्वारा सुभाष के विरोध के बावजूद सारे देश को झकझोर देनेवाले उस मुकदमे के बाद माताएँ अपने बेटों को ‘सुभाष’ का नाम देने में गर्व का अनुभव करने लगीं। घर–घर में राणा प्रताप और छत्रपति शिवाजी महाराज के जोड़ पर नेताजी का चित्र भी दिखाई देने लगा।

आजाद हिन्द फौज के माध्यम से भारत को अंग्रेजों के चंगुल से आजाद करने का नेताजी का प्रयास प्रत्यक्ष रूप में सफल नहीं हो सका किन्तु उसका दूरगामी परिणाम हुआ।

क्युकी आजाद हिन्द फौज पर मुकदमा चलने की वजह से लोग अंग्रेजों पर भड़क उठे और जिस भारतीय सेना के दम पर अंग्रेज हमारी मातृभूमि पर राज कर रहे थे, वो ही सेना विद्रोह पर उतर आई।

इन सौनिकों के विद्रोह ने अंग्रेजों को विश्वास हो गया कि अब भारतीय सेना के बल पर भारत में शासन नहीं किया जा सकता और भारत को स्वतन्त्र करने के अलावा उनके पास कोई दूसरा विकल्प नहीं बचा। और फिर उन्होंने भारत छोड़ने की घोषणा कर दी।

आजाद हिन्द फौज को छोड़कर विश्व-इतिहास में ऐसा कोई भी दृष्टांत नहीं मिलता जहाँ तीस-पैंतीस हजार युद्धबन्दियों ने संगठित होकर अपने देश की आजादी के लिए ऐसा प्रबल संघर्ष छेड़ा हो।

द्वितीय विश्वयुद्ध में जापान की हार के बाद, नेताजी को नया रास्ता ढूँढना जरूरी था। उन्होने रूस से सहायता माँगने का निश्चय किया। 18 अगस्त 1945 को नेताजी हवाई जहाज से मंचूरिया की तरफ जा रहे थे। इस सफर के दौरान वे लापता हो गये। इस दिन के बाद वे कभी किसी को दिखायी नहीं दिये

जहाँ स्वतन्त्रता से पूर्व विदेशी शासक नेताजी की सामर्थ्य से घबराते रहे, तो स्वतन्त्रता के उपरान्त देशी सत्ताधीश जनमानस पर उनके व्यक्तित्व और कर्तृत्व के अमिट प्रभाव से घबराते रहे।

स्वातन्त्र्यवीर सावरकर ने स्वतन्त्रता के उपरान्त देश के क्रांतिकारियों के एक सम्मेलन का आयोजन किया था और उसमें अध्यक्ष के आसन पर नेताजी के तैलचित्र को आसीन किया था। यह एक क्रान्तिवीर द्वारा दूसरे क्रान्ति वीर को दी गयी अभूतपूर्व सलामी थी।

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