फूलदेई : उत्तराखंड का प्रसिद्ध लोकपर्व ऋतुओ आगमन एवं प्रकृति का आभार प्रकट करता
फूलदेई ऋतुओ का आगमन
फूलदेई (Phuldei) का त्योहार उत्तराखंड में नई ऋतुओं का नए साल एवं नए फूलों-फलो का संदेश लाने वाला त्योहार माना जाता है इस पर्व पर उत्तराखंड के जंगल, पहाड़ बुरांश के लाल फूलों की चादर ओढे रहते है इलाके की खुशहाली के लिए फूलदेई का त्योहार मनाया जाता है।
मुख्य रूप से यह त्यौहार बच्चो का त्यौहार है जिसे किशोरी लड़कियों और छोटे बच्चों द्वारा मनाया जाता है। कहा जाता है की यह पर्व प्रकृति का आभार प्रकट करने के उदेश्य से मनाया जाता है।
गांव की खुशाली का प्रतीक फूलदेई
फूलदेई (Phuldei) से एक दिन पहले ही गांव की किशोरिया और छोटे बच्चे जंगलो में जा कर बुरांश, फ्यूली, पुलम, आड़ू, सरसो आदि को फूलो को तोड़कर रख लेते है और दूसरी सुबह उठते ही नहा धो कर नए वस्त्र पहन कर फूलो की टोकरी सजाते है। जिसमे समस्त फूल, कुछ रूपये, गुड, चावल, आदि होते है उन्हें ले कर अपने घर के मुख्य द्वार पर फूल डालते है इसके पश्चात कुल देवताओ के मंदिरो में जाते है वहा पर फूल चढ़ाते है। एवं अपने गांव की खुशाली के लिए प्रार्थना करते है इसके बाद गांव के अन्य घरो में जा कर उन घरो की धेलियो (घर के मुख्य द्वार) में फूल डालकर एक गाना गाते है।
फूलदेई का गाना
फूल देई छम्मा देई,
जतुवे दिच्छा उतुके सई
देणी द्वार,भर भकार,
ये देली बारम्बार नमस्कार,
फुले द्वार खुश रहे घर परिवार
फूल देई छम्मा देई
फूल देई छम्मा देई
जिसके बाद उस घर की महिलाये उन बच्चो को चावल,गुड़,और कुछ पैसे भी देती है उसके बाद उन चावलों को बच्चे अपने अपने घर लाते है । और उन चावलों को भीगा कर मीठे पकवान बनाये जाते है।
अनेक स्थानों में फूलदेई का पर्व साल में दो बार मनाया जाता है । कई स्थानों पर यह पर्व चैत्र माह के 1 गते मनाया जाता है। और कई स्थानों में फूलदेई बैशाख 1 गते मनाते है। साथ ही गढ़वाल में यह पर्व पूरे एक महीने तक मनाया जाएगा। फूलदेई की शुरुआत 14 मार्च से हो जाती है। 14 मार्च से 14 अप्रैल तक हर तरफ फूलदेई का उल्लास देखने को मिलेगा।
यह पारम्परिक त्यौहार हमे हमारे पूर्वजो से उपहार के रूप में मिले है यह हमारी संस्कृति है जो हमे प्रकृति और सामाजिक प्रेम से जोड़ते है। फूलदेइ भी उसी तरह का त्यौहार है बच्चो को उन पेड़ो पोधो से विशेष लगाव होता है जिनके फूल वो इस त्यौहार में उपयोग में लाते है।
कश्मीर से कन्याकुवरी तक भारत में अनेको स्थानों पर अलग – अलग स्थानीय पारम्परिक त्यौहार मनाये जाते है अगर आप भी रोजगार के चलते अपने प्रदेश या गांव को छोड़ना पड़ा हो तो अपने पारम्परिक त्योहारों के बारे में अपने बच्चो को जरूर अवगत कराये। अपने लोक पर्वो, अपनी भाषा, और अपने गांव के विषय में बताये। और समय मिलने पर इन जगहों पर जरूर जाये। एक बार ऐसा करके देखिये आपको बहुत खुसी मिलेगी।
उत्तराखण्ड को यूं तो देवभूमि के नाम से दुनिया भर में जाना जाता है। इस प्रदेश की एक ये खासियत है कि जटिल परिस्थितियों के बाद भी यहां के लोग अपने लोक पर्वों को मनाना भी नहीं भूलते। बच्चों का यह उत्साह तो देखने लायक होता है।
एक कटु सत्य यह भी है की सरकार की अनदेखी और अपनी जटिल भौगोलिक संरचना के चलते उत्तराखण्ड के युवाओ के सामने रोजगार एक मुख्य समस्या है। रोजगार न होने के कारण वहां के युवा तेजी से पलायन कर रहे है। जिससे उत्तराखंड के गावं साल दर साल खाली हो रहे हैं।
गावं की देहरी भी सूनी हो रही हैं. गावों में जो देहरी आबाद हैं उनके भीतर बस बुजुर्ग बसे हैं। उदासी की चादर में सिमटे इन गावों में फूलदेई के दिन गांव के बुजुर्ग अपनी देहरी में फूल और चावल चढ़ा कर त्यौहार के शगुन को पूरा करते नज़र आ ही जाते हैं। शहर और कस्बों में बस चुके पहाड़ी परिवारों के पास इतना समय नहीं है कि, अपने इस लोकप्रिय त्यौहार के लिये कुछ समय निकाल सकें। और घर में रह रहे बुजुर्गो के साथ समय बिता सके।
चैत्र माह के 1 गते से बेटियों का पर्व भिटोली भी आरम्भ हो जाता है । कहा जाता है यह माह सभी महीनो कई अपेक्षा अधिक दिनों का होता है क्युकी चैत्र माह के कुछ दिन बेटियों को समर्पित होते है। भिटोली के विषय में अधिक जानकारी के लिए यहा क्लिक करे।
Read this : Bhitauli : “न बासा घुघुती चैत की, याद ऐ जांछी मिकें मैत की”
फूलदेई से जुड़ी हैं यह लोक कथाएं
देवभूमि में फूलदेई पर्व पर अनेको कथाये प्रचलित है जिनमे पौराणिक मान्यताओं के अनुसार, फूलदेई त्योहार मनाने के पीछे एक रोचक कहानी है। ऐसा कहा जाता है । कि भगवान शिव शीतकाल में अपनी तपस्या में लीन थे। ऋतु परिवर्तन के कई वर्ष बीत गए लेकिन शिव की तंद्रा नहीं टूटी।
ऐसे में कई वर्ष शिव के तंद्रालीन होने से मां पार्वती के साथ – साथ नंदी-शिवगण और संसार के वे मौसमी हो गए। आखिरकार शिव की तंद्रा तोड़ने के लिए पार्वती ने युक्ति निकाली और शिव भक्तों को पीतांबरी वस्त्र पहनाकर उन्हें अबोध बच्चों का स्वरूप दे दिया। फिर सभी देव क्यारियों में ऐसे पुष्प चुनकर लाए, जिनकी खुशबू पूरे कैलाश में महक उठी।
सबसे पहले शिव के तंद्रालीन मुद्रा को अर्पित किए गए, शिव की तंद्रा टूटी लेकिन, सामने बच्चों के वेश में शिवगणों को देखकर उनका क्रोध शांत हो गया।
इस वक्त उत्तराखंड के पहाड़ों में अनेक प्रकार के सुंदर और रंग-बिरंगे फूल खिलते हैं। पूरे पहाड़ का आंचल रंग-बिरंगे फूलों से सजा होता है।
आपको हमारी यह पोस्ट कैसी लगी हमें कॉमेट करके अवश्य बताये