Yagyopaveet Sanskaar in Hinduism

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Yagyopaveet Sanskaar
Yagyopaveet Sanskaar

आज यज्ञोपवीत पूर्णिमा अथवा जनेऊ पूर्णिमा भी यह हर साल रक्षा बंधन के दिन ही मनाई जाती है। यज्ञोपवीत को गुरु दीक्षा के बाद हमेशा धारण किया जाता है। अपवित्र होने पर होने पर यज्ञोपवीत बदल लिया जाता है।

हर साल यज्ञोपवीत पूर्णिमा नया जनेऊ पहनने का विधान है नया जनेऊ पहनने से पहले स्नान के पश्चात अपने दोनों हाथों में जनेऊ को पकड़ें।


इसके बाद नीचे लिखे मंत्र का उच्चारण करें –

ॐ यज्ञोपवीतम् परमं पवित्रं प्रजा-पतेर्यत -सहजं पुरुस्तात।
आयुष्यं अग्र्यं प्रतिमुन्च शुभ्रं यज्ञोपवितम बलमस्तु तेजः।।

इसके बाद गायत्री मन्त्र का कम से कम 11 बार उच्चारण करते हुए जनेऊ या यज्ञोपवित धारण करें।

ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं
भर्गो देवस्यः धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्

मंत्र के प्रत्येक शब्द की व्याख्या

गायत्री मंत्र के पहले नौ शब्द प्रभु के गुणों की व्याख्या करते हैं…
ॐ = प्रणव
भूर = मनुष्य को प्राण प्रदाण करने वाला
भुवः = दुख़ों का नाश करने वाला
स्वः = सुख़ प्रदाण करने वाला
तत = वह, सवितुर = सूर्य की भांति उज्जवल
वरेण्यं = सबसे उत्तम
भर्गो = कर्मों का उद्धार करने वाला
देवस्य = प्रभु
धीमहि = आत्म चिंतन के योग्य (ध्यान)
धियो = बुद्धि, यो = जो, नः = हमारी,
प्रचोदयात् = हमें शक्ति दें (प्रार्थना)

सनातन धर्म का  इतिहास ‘शिखा ’ और ‘सूत्र’ का इतिहास है। सभ्यता के संघर्ष काल में आर्यजाति और संस्कृति इन्हीं पावन प्रतीकों के साथ पली-बढ़ी।

विधर्मियों ने सर्वदा अपने आक्रमणों का लक्ष्य शिखा-सूत्र को ही बनाया किन्तु प्राणोत्सर्ग करके भी आर्य (हिन्दू) जाति ने इसे नहीं छोड़ा और दृढ़ता से बचाये रखा।

  • इसलिए यज्ञोपवीत-सूत्र क्या है?
  • इसका संस्कार किया जाना क्यों आवश्यक है?
  • इसके निर्माण में विशेष विधि क्यों अपनायी गई है?
  • मानव-जीवन में इसका क्या महत्त्व और उपयोगिता है? इत्यादि को समझने की आवश्यकता है।

जनेऊ को उपवीत, यज्ञसूत्र, व्रतबन्ध, बलबन्ध, मोनीबन्ध और ब्रह्मसूत्र भी कहते हैं। इसे उपनयन संस्कार भी कहते हैं। ‘उपनयन’ का अर्थ है, ‘पास या सन्निकट ले जाना।’ किसके पास? ब्रह्म (ईश्वर) और ज्ञान के पास ले जाना। हिन्दू समाज का हर वर्ग जनेऊ धारण कर सकता है।

यज्ञोपवीत की उत्पत्ति

यज्ञोपवीत की उत्पत्ति और प्रचलन का कोई ऐतिहासिक प्रमाण प्राप्त नहीं है। इसका संबंध तो उस काल से लगाया गया है जब प्रलय के गर्भ में अनन्त काल से प्रस्तुत मानव-सृष्टि का नवोदय प्रारम्भ हुआ था। उस समय श्रीब्रह्माजी स्वयं यज्ञोपवीत धारण किए हुए थे। इसीलिए यज्ञोपवीत धारण करते समय यह मन्त्र पढ़ा जाता है-

‘‘यज्ञोपवीतं परमं पवित्रं
पवित्रं प्रजापतेर्यत्सहजं पुरस्तात्।’’

सार रूप में यह पवित्रं मन्त्र ही यज्ञोपवीत की उत्पत्ति का स्पष्ट संकेत देता है।

वेदग्रन्थों में इसके उल्लेख से स्पष्ट हो जाता है कि यज्ञोपवीत किन्हीं परवर्ती ऋषियों द्वारा निर्मित सूत्र नहीं था और न ही किसी सामाजिक या विद्या चिह्न के रूप में स्थापित किया गया है।

यज्ञोपवीत-निर्माण की जो विशेष प्रक्रिया निष्चित की गई है वह स्पष्टतया यह प्रतिपादित करती है कि ‘यज्ञोपवीत ईश्वर द्वारा द्विजाति को सौंपे गए उत्तरदायित्वों के निर्वहण के लिए गुरु के सानिध्य में आवश्यक शिक्षा और योग्यता प्राप्त करने हेतु किया जाता है।  

यज्ञोपवीत में तीन सूत्र और त्रिवृत् विधानः

हिन्दूधर्म में तीन की संख्या आध्यात्मिक, आधिदैविक एवं आधिभौतिक― सभी क्षेत्रों में विषेष महत्त्व रखती है, यथा-

  • वेदत्रयी― ऋक्, यजुः और साम
  • त्रिदेव― ब्रह्मा, विष्णु, महेष
  • त्रिकाल― भूत, वर्तमान, भविष्य
  • तीन गुन― सत्त्व, रज और तम
  • तीन ऋतुएँ― ग्रीष्म, वर्षा और षीत
  • त्रिलोक― पृथ्वी, अन्तरिक्ष और द्युलोक

यज्ञोपवीत (जनेऊ) में तीन-सूत्र: ब्रह्मचर्य का प्रतिक भी माना जाता है किन्तु कई लोग केवल 3 सूत्र की यज्ञोपवीत ही धारण करते है।

महिलाओ का यज्ञोपवीत संस्कार नहीं होता है इसलिए विवाह से पूर्व समावर्तन संस्कार के पश्चात उसका पति दो यज्ञोपवीत 6 सूत्र (जनेऊ) धारण करना करता है क्योंकि गृहस्थ पर पति तथा धर्मपत्नी दोनों का उत्तरदायित्व होता है। दो कहने का तात्पर्य 6 पल्ली यज्ञोपवीत से है, यह गृहस्थ जीवन में प्रवेश करने का भी सूचक माना जाता है।

शास्त्रों के अनुसार ब्राह्मण बालक 07 वर्ष, क्षत्रिय 11 वर्ष और वैश्य के बालक का 13 वर्ष के पूर्व संस्कार होना चाहिये और किसी भी परिस्थिति में विवाह योग्य आयु के पूर्व अवश्य हो जाना चाहिये।

जनेऊ में तीन-सूत्र: त्रिमूर्ति ब्रह्मा, विष्णु और महेश के प्रतीक – देवऋण, पितृऋण और ऋषिऋण के प्रतीक – सत्व, रज और तम के प्रतीक होते है। साथ ही ये तीन सूत्र गायत्री मंत्र के तीन चरणों के प्रतीक है तो तीन आश्रमों के प्रतीक भी।

जनेऊ के एक-एक तार में तीन-तीन तार होते हैं। अत: कुल तारों की संख्‍या नौ होती है। इनमे एक मुख, दो नासिका, दो आंख, दो कान, मल और मूत्र के दो द्वारा मिलाकर कुल नौ होते हैं।

इनका मतलब है – हम मुख से अच्छा बोले और खाएं, आंखों से अच्छा देंखे और कानों से अच्छा सुने। जनेऊ में पांच गांठ लगाई जाती है जो ब्रह्म, धर्म, अर्ध, काम और मोक्ष का प्रतीक है। ये पांच यज्ञों, पांच ज्ञानेद्रियों और पंच कर्मों के भी प्रतीक है।

जनेऊ की लंबाई: जनेऊ की लंबाई 96 अंगुल होती है क्यूंकि जनेऊ धारण करने वाले को 64 कलाओं और 32 विद्याओं को सीखने का प्रयास करना चाहिए।

32 विद्याएं चार वेद, चार उपवेद, छह अंग, छह दर्शन, तीन सूत्रग्रंथ, नौ अरण्यक मिलाकर होती है।

64 कलाओं में वास्तु निर्माण, व्यंजन कला, चित्रकारी, साहित्य कला, दस्तकारी, भाषा, यंत्र निर्माण, सिलाई, कढ़ाई, बुनाई, दस्तकारी, आभूषण निर्माण, कृषि ज्ञान आदि आती हैं।

जनेऊ में नियम है कि जनेऊ बाएं कंधे से दाये कमर पर पहनना चाहिए। मल-मूत्र विसर्जन के दौरान जनेऊ को दाहिने कान पर चढ़ा लेना चाहिए और हाथ स्वच्छ करके ही उतारना चाहिए। इसका मूल भाव यह है कि जनेऊ कमर से ऊंचा हो जाए और अपवित्र न हो। यह बेहद जरूरी होता है।

मतलब साफ है कि जनेऊ पहनने वाला व्यक्ति ये ध्यान रखता है कि मलमूत्र करने के बाद खुद को साफ करना है इससे उसको इंफेक्शन का खतरा कम से कम हो जाता है।

शरीर में कुल 365 एनर्जी पॉइंट होते हैं। अलग-अलग बीमारी में अलग-अलग पॉइंट असर करते हैं। कुछ पॉइंट कॉमन भी होते हैं। एक्युप्रेशर में हर पॉइंट को दो-तीन मिनट दबाना होता है। और जनेऊ से हम यही काम करते है उस पॉइंट को हम एक्युप्रेश होता है।

कान के नीचे वाले हिस्से (इयर लोब) की रोजाना पांच मिनट मसाज करने से याददाश्त बेहतर होती है। यह टिप पढ़नेवाले बच्चों के लिए बहुत उपयोगी है। अगर भूख कम करनी है तो खाने से आधा घंटा पहले कान के बाहर छोटेवाले हिस्से (ट्राइगस) को दो मिनट उंगली से दबाएं। भूख कम लगेगी। यहीं पर प्यास का भी पॉइंट होता है। निर्जला व्रत में लोग इसे दबाएं, तो प्यास कम लगेगी।

एक्युप्रेशर की शब्दावली में इसे पॉइंट जीवी 20 या डीयू 20 कहते हैं।
इसका लाभ आप देखें –

GV POINT 20 – स्थान : कान के पीछे के झुकाव में।

उपयोग: डिप्रेशन, सिरदर्द, चक्कर और सेंस ऑर्गन यानी नाक, कान और आंख से जुड़ी बीमारियों में राहत। दिमागी असंतुलन, लकवा और यूटरस की बीमारियों में असरदार। (दिए गए चित्र में समझें)

इसके अलावा इसके कुछ अन्य लाभ, जो क्लीनिकली प्रमाणित हैं –

  • बार-बार बुरे स्वप्न आने की स्थिति में जनेऊ धारण करने से ऐसे स्वप्न नहीं आते।
  • जनेऊ के हृदय के पास से गुजरने से यह हृदय रोग की संभावना को कम करता है, क्योंकि इससे रक्त संचार सुचारू रूप से संचालित होने लगता है।
  • जनेऊ पहनने वाला व्यक्ति सफाई नियमों में बंधा होता है। यह सफाई उसे दांत, मुंह, पेट, कृमि, जीवाणुओं के रोगों से बचाती है।
  • जनेऊ को दायें कान पर धारण करने से कान की वह नस दबती है, जिससे मस्तिष्क की कोई सोई हुई तंद्रा कार्य करती है।
  • दाएं कान की नस अंडकोष और गुप्तेन्द्रियों से जुड़ी होती है। मूत्र विसर्जन के समय दाएं कान पर जनेऊ लपेटने से शुक्राणुओं की रक्षा होती है।
  • कान में जनेऊ लपेटने से मनुष्य में सूर्य नाड़ी का जाग्रण होता है।
  • कान पर जनेऊ लपेटने से पेट संबंधी रोग एवं रक्तचाप की समस्या से भी बचाव होता है।

जनेऊ संस्कार का महत्व:

यह अति आवश्यक है कि हर परिवार धार्मिक संस्कारों को महत्व देवें, घर में बड़े बुजर्गों का आदर व आज्ञा का पालन हो, अभिभावक बच्चों के प्रति अपने दायित्वों का निर्वाह समय पर करते रहे। धर्मानुसार आचरण करने से सदाचार, सद्‌बुद्धि, नीति-मर्यादा, सही – गलत का ज्ञान प्राप्त होता है और घर में सुख शांति कायम रहती है।

  • जनेऊ यानि दूसरा जन्म (पहले माता के गर्भ से दूसरा धर्म में प्रवेश से) माना गया है।
  • उपनयन यानी ज्ञान के नेत्रों का प्राप्त होना, यज्ञोपवीत याने यज्ञ – हवन करने का अधिकार प्राप्त होना।
  • जनेऊ धारण करने से पूर्व जन्मों के बुरे कर्म नष्ट हो जाते हैं।
  • जनेऊ धारण करने से आयु, बल, और बुद्धि में वृद्धि होती है।
  • जनेऊ धारण करने से शुद्ध चरित्र और जप, तप, व्रत की प्रेरणा मिलती है।
  • जनेऊ से नैतिकता एवं मानवता के पुण्य कर्तव्यों को पूर्ण करने का आत्म बल मिलता है।
  • जनेऊ के तीन धागे माता-पिता की सेवा और गुरु भक्ति का कर्तव्य बोध कराते हैं।
  • यज्ञोपवीत संस्कार बिना विद्या प्राप्ति, पाठ, पूजा अथवा व्यापार करना सभी निर्थरक है।
  • जनेऊ के तीन धागों में 9 लड़ होती है, फलस्वरूप जनेऊ पहनने से 9 ग्रह प्रसन्न रहते हैं।

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