छठ पूजा

आस्था
chhath puja

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छठ पूजा भगवान् सूर्य और छठि माई की उपासना का पर्व है ऐसी मान्यता है की इस व्रत को करने से दुःख दरिद्रता, का नाश होता है सुख-शांति, धन-धान्य, और गुणवान और बुद्धिवान संतान की प्राप्ति होती है, यह पर्व वर्ष में दो बार मनाया जाता है कार्तिक शुक्ल षष्टी और चैत्र शुक्ल षष्टी.

कार्तिक शुक्ल षष्टी को मनाया जाने वाले पर्व को अधिक महत्व दिया जाता है, चार दिनों तक चलने वाले इस पर्व को छठ पूजा, छठि माई, सूर्य षष्टी आदि नामो से जाना जाता है, यह त्यौहार पूर्वी भारत में अधिक मनाया जाता है अब यह त्यौहार विदेशो में भी मनाया जाने लगा है इस पर्व को स्त्री पुरुष दोनों ही अपने परिवार की खुशाली, एवं मनोकामना पूर्ति के लिए करते है, छठ पूजा नहाये खाये के साथ चार दिनों की लोक आस्था और सूर्य देव की उपासना का महापर्व है

छठ पूजा (पहला दिन) नहाये खाये से सुरु होता है माना जाता है की इस पर्व पर जिसका व्रत होता है वह व्यक्ति सुबह जल्दी स्नान आदि करके नए वस्त्र धारण करता है और सुबह शुद्ध शाकाहारी भोजन करता है जैसे सब्जी, दाल चावल आदि लेते है पहले व्रत वाला व्यक्ति भोजन करता है उसके बाद घर के अन्य सदस्य भोजन करते है

छठ पूजा (दूसरा दिन) खरना होता है कार्तिक शुक्ल पंचमी को पुरे दिन व्रत रखा जाता है और शाम को  भोजन किया जाता है,  इस दिन अन्न एवं जल ग्रहण किये बिना पुरे दिन व्रत लिया जाता है और शाम को चावल और गुड़ से खीर बना कर खाया जाता है नमक और चीनी का उपयोग नहीं किया जाता है चावल का पीठा व घी लगी रोटी भी प्रसाद के रूप में खायी जाती है और फिर सुबह लोगो को प्रसाद दिया जाता है

षष्टी के दिन छट पूजा का प्रसाद बनाया जाता है इसमें खेकुवा विशेष होता हे कुछ जगहों पर इसे टिकरी भी कहा जाता है चावल के लड्डू भी बनाये जाते है प्रसाद, फल लेकर बाश की टोकरी सजाई जाती है फिर टोकरी की पूजा कर सभी व्रत किये हुए स्त्री, पुरुष तालाब, नदी और घाटों पर पूजा के लिए जाते है स्नान कर सभी अस्त (डुबते) होते सूरज को अर्घ्य देते है.

अगले दिन यानि की सप्तमी तिथि को सुबह एक बार फिर बास की टोकरी को सभी प्रकार के फलो से सजाकर जैसा पहले दिन सूर्यास्त के समय किआ था उसी प्रकार सूर्योदय पर दोहराया जाता है विधि पूर्वक पूजा की जाती है फिर प्रसाद बाट कर छठ पूजा संपन्न की जाती है

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छठ व्रत कथा (Chhath Vrat Katha)

कथा के अनुसार प्रियव्रत नाम के एक राजा थे। उनकी पत्नी का नाम मालिनी था। परंतु दोनों की कोई संतान न थी। इस बात से राजा और उसकी पत्नी बहुत दुखी रहते थे। उन्होंने एक दिन संतान प्राप्ति की इच्छा से महर्षि कश्यप द्वारा पुत्रेष्टि यज्ञ करवाया। इस यज्ञ के फल स्वरूप रानी गर्भवती हो गई।

नौ महीने बाद संतान सुख को प्राप्त करने का समय आया तो रानी को मरा हुआ पुत्र प्राप्त हुआ। इस बात का पता चलने पर राजा को बहुत दुख हुआ। संतान शोक में वह आत्म हत्या का मन बना लिया। परंतु जैसे ही राजा ने आत्महत्या करने की कोशिश की उनके सामने एक सुंदर देवी प्रकट हुईं।

देवी ने राजा को कहा कि “मैं षष्टी देवी हूं”। मैं लोगों को पुत्र का सौभाग्य प्रदान करती हूं। इसके अलावा जो सच्चे भाव से मेरी पूजा करता है मैं उसके सभी प्रकार के मनोरथ को पूर्ण कर देती हूं। यदि तुम मेरी पूजा करोगे तो मैं तुम्हें पुत्र रत्न प्रदान करूंगी।” देवी की बातों से प्रभावित होकर राजा ने उनकी आज्ञा का पालन किया।

राजा और उनकी पत्नी ने कार्तिक शुक्ल की षष्टी तिथि के दिन देवी षष्टी की पूरे विधि -विधान से पूजा की। इस पूजा के फलस्वरूप उन्हें एक सुंदर पुत्र की प्राप्ति हुई। तभी से छठ का पावन पर्व मनाया जाने लगा।

छठ व्रत के संदर्भ में एक अन्य कथा के अनुसार जब पांडव अपना सारा राजपाट जुए में हार गए, तब द्रौपदी ने छठ व्रत रखा। इस व्रत के प्रभाव से उसकी मनोकामनाएं पूरी हुईं तथा पांडवों को राजपाट वापस मिल गया।

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