Krana ki katha | कौन था बड़ा दानी कर्ण या अर्जुन | Krana vs Arjun | अर्जुन और कर्ण में सबसे बड़ा दानवीर|danveer krana ki katha

आस्था

Krana ki katha |कौन था बड़ा दानी कर्ण या अर्जुन | Krana vs Arjun |अर्जुन और कर्ण में सबसे बड़ा दानवीर|danveer krana ki katha

Krana ki katha : किसी को दान करना महादान कहलाता है और जिसका पुण्य इंसान को दुनिया को छोड़ने के बाद भी प्राप्त होता है। लेकिन भगवान श्री कृष्ण की मानें तो दान देना व्यर्थ है. बात हम महाभारत काल की करें, तो वहां ऐसे कई पात्र हैं जिन्होंने अपने जीवन में कई सारे दान-पुण्य का काम किया है और दान-पुण्य की इस सूचि में सबसे पहले और बड़ा नाम किसी का आता है, तो वह है कर्ण।

आज भी लोग सबसे बड़ा दानी कर्ण को ही मानते हैं। दरअसल, एक बार भगवान श्री कृष्ण और अर्जुन एक गांव से गुजर रहे थे कि तभी अचानक श्री कृष्ण ने अर्जुन से दानवीर कर्ण की दिल खोलकर प्रशंसा कर डाली, जिसे सुनते ही अर्जुन ने यह सवाल किया कि आखीर कर्ण ही क्यों सबसे बड़े दानी कहलाते हैं… दान तो मैं भी करता हूं… मैं भी तो दानी हुआ… फिर भी आप मुझे क्यों बड़ा दानी नहीं कहते… अर्जुन के इस सवाल पर पहले तो भगवान श्री कृष्ण मुस्कुराए और फिर अपने सामने मौजूद दो बड़े पर्वतों को उन्होंने सोने का बना दिया और कहा कि – “पार्थ यह दोनों सोने के पर्वत हैं… आप इन्हें गांव वालों में दान कर आए, लेकिन इस बात का ध्यान रहे कि पर्वतों का एक एक हिस्सा गांव के सभी लोग को ज़रूर मिलना चाहिए और तुम खुद अपने लिए कुछ भी हिस्सा नहीं रख सकते हो… फिर क्या अर्जुन ने भगवान श्री कृष्ण से आशीर्वाद लिया और गांव की ओर चल दिए।

गांव पहुंचकर उन्होंने गांव में मौजूद सभी लोगों को एकत्रित होने की आज्ञा दी। अर्जुन ने सोना बांटना शुरू किया। सभी लोग अर्जुन की जय-जयकार करने लगे और अर्जुन यह सुन फुले नहीं समाए। पूरे दो दिनों तक यह सिलसिला यूंही चलता रहा। गांव वाले आते और फिर दोबारा लाइन में खड़े हो जाते। अर्जुन काफी तंग हो गए लेकिन गांव वालों की जय-जयकार उनका हौसला बांधे हुए थी।

थक-हार कर अर्जुन कहते हैं कि – “हे केशव… मैं आपसे से क्षमा चाहता हूं लेकिन अब मैं यह काम नहीं कर पाउंगा… अब श्री कृष्ण कर्ण को बुलाते हैं और अर्जुन की ही तरह उन्हें दोनों सोने के पर्वत को गांव वालों के बीच बांटने को कहते हैं। भगवान श्री कृष्ण की आज्ञा का पालन करते हुए कर्ण ने सभी गांव वालों को बुलाया और कहा –

“यह सोना आप सभी का है… आप जितना चाहे ले लें और आपस में बांट लें। बस इतना कहकर कर्ण वहां से चलते बने। अर्जुन यह सब देख रहे थे और फिर वह श्री कृष्ण से सवाल करते हैं कि उनके दिमाग में यह विचार क्यों नहीं आया… श्री कृष्ण मुस्कराते हैं और कहते हैं कि – “पार्थ सच तो यह है कि तुम्हें सोने से मोह हो गया था और तुम आकलन करने बैठ गए थे कि किसको कितना ज़रूरत है,

उसके हिसाब से ही तुम सोना गांव वालों के बीच बांट रहे थे। वहीं, गांव वाले जब तुम्हारी जय-जयकार करने लगे, तो खुद को महान दाता समझने लगे, लेकिन कर्ण ने ऐसा कुछ नहीं किया। उसने चुप चाप दोनों सोने के पर्वत को गांव वालों के बीच बांट दिया,

क्योंकि कर्ण चाहते ही नहीं थे कि उनकी जय-जयकार हो। कर्ण को इस बात का ज्ञान था कि वह बस एक ज़रिया हैं, जो परमात्मा द्वारा दी हुई चीज़ों को गांव वालों तक पहुंचा रहे हैं। याद रखें कि दान कभी कुछ पाने की इच्छा से ना करें, क्योंकि वैसा दान हमेशा व्यर्थ जाता है… जिस दान को देते समय आपको किसी चीज़ को पाने की इच्छा होती हो,

तो वह दान कभी सफल दान नहीं होगा और आपको उसका पुण्य कभी प्राप्त भी नहीं होगा हम अक्सर जब भी किसी व्यक्ति को कुछ दान दे कर घमंड कर हम अपनी प्रशंसा की आशा रखते है तो हमारा सारा दान एक सौदा हो जाता है। जिसका कोई मोल नहीं.. आप को खुद पर गर्व होना चाहिए कि आपने किसी की सहायता की ना की उसका घमंड।

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