Ramdhari Singh Dinkar : दिनकर ने  क्यों कहा इजाजत लेकर लिखने से बेहतर मैं लिखना छोड़ दूं

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Ramdhari singh
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Ramdhari singh dinkar – ऐसे समय में, जब देश के अधिसंख्य लेखक राजनीतिक विचारों के आधार पर बुरी तरह विभाजित हैं, जब लेखन और भाषण भी अपने-अपने राजनीतिक खेमों की सुविधा को ध्यान में रखकर किए जा रहे हैं, जनता से जुड़े मुद्दों को उठाने में भी राजनीतिक दलों के नफ़े-नुकसान का गणित लगाया जा रहा है,

यहां तक कि लोगों की जानों को भी जाति और धर्म के चश्मे से देखकर प्रतिक्रियाएं व्यक्त की जाने लगी हैं, राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर (Ramdhari singh dinkar) को याद करना न सिर्फ़ समाज और राजनीति को नई दिशा देने के लिहाज़ से महत्वपूर्ण हो सकता है, बल्कि लेखकों को भी उनके दायित्व बोध का अहसास कराने में अहम साबित हो सकता है

रामधारी सिंह दिनकर के जन्म दिवस पर विशेष

रामधारी सिंह ‘दिनकर’ (Ramdhari singh dinkar) का जन्म ‘3 सितम्‍बर 1908- 24 अप्रैल 1974) हिन्दी के एक प्रमुख लेखक, कवि व निबन्धकार थे।[ वे आधुनिक युग के श्रेष्ठ वीर रस के कवि के रूप में स्थापित हैं।

‘दिनकर’ (Ramdhari singh) स्वतन्त्रता पूर्व एक विद्रोही कवि के रूप में स्थापित हुए और स्वतन्त्रता के बाद ‘राष्ट्रकवि’ के नाम से जाने गये। वे छायावादोत्तर कवियों की पहली पीढ़ी के कवि थे। एक ओर उनकी कविताओ में ओज, विद्रोह, आक्रोश और क्रान्ति की पुकार है तो दूसरी ओर कोमल श्रृंगारिक भावनाओं की अभिव्यक्ति है। इन्हीं दो प्रवृत्तियों का चरम उत्कर्ष हमें उनकी कुरुक्षेत्र और उर्वशी नामक कृतियों में मिलता है।


जीवनी ‘दिनकर’ (Ramdhari singh dinkar) जी का जन्म 24 सितंबर 1908 को बिहार के बेगूसराय जिले के सिमरिया गाँव  में हुआ था। उन्होंने पटना विश्वविद्यालय से इतिहास राजनीति विज्ञान में बीए किया। उन्होंने संस्कृत, बांग्ला, अंग्रेजी और उर्दू का गहन अध्ययन किया था। बी. ए. की परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद वे एक विद्यालय में अध्यापक हो गये।

1934 से 1947 तक बिहार सरकार की सेवा में सब-रजिस्टार और प्रचार विभाग के उपनिदेशक पदों पर कार्य किया। 1950 से 1952 तक मुजफ्फरपुर कालेज में हिन्दी के विभागाध्यक्ष रहे, भागलपुर विश्वविद्यालय के उपकुलपति के पद पर कार्य किया और उसके बाद भारत सरकार के हिन्दी सलाहकार बने।

उन्हें पद्म विभूषण की उपाधि से भी अलंकृत किया गया। उनकी पुस्तक संस्कृति के चार अध्याय के लिये साहित्य अकादमी पुरस्कार तथा उर्वशी के लिये भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार प्रदान किया गया। अपनी लेखनी के माध्यम से वह सदा अमर रहेंगे। द्वापर युग की ऐतिहासिक घटना महाभारत  पर आधारित उनके प्रबन्ध काव्य कुरुक्षेत्र को विश्व के 100 सर्वश्रेष्ठ काव्यों में 74वाँ स्थान दिया गया।

1947 में देश स्वाधीन हुआ और वह बिहार विश्वविद्यालय में हिन्दी के प्रध्यापक व विभागाध्यक्ष नियुक्त होकर मुज़फ़्फ़रपुर पहुँचे। 1952 में जब भारत की प्रथम संसद का निर्माण हुआ, तो उन्हें राज्यसभा का सदस्य चुना गया और वह दिल्ली आ गए। दिनकर 12 वर्ष तक संसद-सदस्य रहे, बाद में उन्हें सन 1964 से 1965 ई. तक भागलपुर विश्वविद्यालय का कुलपति नियुक्त किया गया।

लेकिन अगले ही वर्ष भारत सरकार ने उन्हें 1965 से 1971 ई. तक अपना हिन्दी सलाहकार नियुक्त किया और वह फिर दिल्ली लौट आए। फिर तो ज्वार उमरा और रेणुका, हुंकार, रसवंती और द्वंद्वगीत रचे गए। रेणुका और हुंकार की कुछ रचनाऐं यहाँ-वहाँ प्रकाश में आईं और अग्रेज़ प्रशासकों को समझते देर न लगी कि वे एक ग़लत आदमी को अपने तंत्र का अंग बना बैठे हैं और दिनकर की फ़ाइल तैयार होने लगी, बात-बात पर क़ैफ़ियत तलब होती और चेतावनियाँ मिला करतीं। चार वर्ष में बाईस  बार उनका तबादला किया गया।

रामधारी सिंह दिनकर (Ramdhari singh dinkar) स्वभाव से सौम्य और मृदुभाषी थे, लेकिन जब बात देश के हित-अहित की आती थी तो वह बेबाक टिप्पणी करने से कतराते नहीं थे। रामधारी सिंह दिनकर ने ये तीन पंक्तियां पंडित जवाहरलाल नेहरू के खिलाफ संसद में सुनाई थी, जिससे देश में भूचाल मच गया था। दिलचस्प बात यह है कि राज्यसभा सदस्य के तौर पर दिनकर का चुनाव पंडित नेहरु ने ही किया था, इसके बावजूद नेहरू की नीतियों की मुखालफत करने से वे नहीं चूके।

देखने में देवता सदृश्य लगता है
बंद कमरे में बैठकर गलत हुक्म लिखता है।
जिस पापी को गुण नहीं गोत्र प्यारा हो
समझो उसी ने हमें मारा है॥

1962 में चीन से हार के बाद संसद में दिनकर ने इस कविता का पाठ किया जिससे तत्कालीन प्रधानमंत्री नेहरू का सिर झुक गया था. यह घटना आज भी भारतीय राजनीती के इतिहास की चुनिंदा क्रांतिकारी घटनाओं में से एक है.

रे रोक युद्धिष्ठिर को न यहां जाने दे उनको स्वर्गधीर
फिरा दे हमें गांडीव गदा लौटा दे अर्जुन भीम वीर॥

इसी प्रकार एक बार तो उन्होंने भरी राज्यसभा में नेहरू की ओर इशारा करते हए कहा- “क्या आपने हिंदी को राष्ट्रभाषा इसलिए बनाया है, ताकि सोलह करोड़ हिंदी भाषियों को रोज अपशब्द सुनाए जा सकें?” यह सुनकर नेहरू सहित सभा में बैठे सभी लोग सन्न रह गए थे। किस्सा 20 जून 1962 का है। उस दिन दिनकर राज्यसभा में खड़े हुए और हिंदी के अपमान को लेकर बहुत सख्त स्वर में बोले। उन्होंने कहा-

देश में जब भी हिंदी को लेकर कोई बात होती है, तो देश के नेतागण ही नहीं बल्कि कथित बुद्धिजीवी भी हिंदी वालों को अपशब्द कहे बिना आगे नहीं बढ़ते। पता नहीं इस परिपाटी का आरम्भ किसने किया है, लेकिन मेरा ख्याल है कि इस परिपाटी को प्रेरणा प्रधानमंत्री से मिली है। पता नहीं, तेरह भाषाओं की क्या किस्मत है कि प्रधानमंत्री ने उनके बारे में कभी कुछ नहीं कहा, किन्तु हिंदी के बारे में उन्होंने आज तक कोई अच्छी बात नहीं कही।

मैं और मेरा देश पूछना चाहते हैं कि क्या आपने हिंदी को राष्ट्रभाषा इसलिए बनाया था ताकि सोलह करोड़ हिंदी भाषियों को रोज अपशब्द सुनाएं? क्या आपको पता भी है कि इसका दुष्परिणाम कितना भयावह होगा ?

यह सुनकर पूरी सभा सन्न रह गई। ठसाठस भरी सभा में भी गहरा सन्नाटा छा गया। यह मुर्दा-चुप्पी तोड़ते हुए दिनकर ने फिर कहा- ‘मैं इस सभा और खासकर प्रधानमंत्री नेहरू से कहना चाहता हूं कि हिंदी की निंदा करना बंद किया जाए। हिंदी की निंदा से इस देश की आत्मा को गहरी चोट पहंचती है।

रामधारी सिंह दिनकर ने आज़ाद भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू से लेकर राष्ट्रपिता महात्मा गांधी तक पर अपनी कलम चलाई. एक वाकिया ऐसा ही है जब सीढ़ियों से उतरते हुए नेहरू लड़खड़ा गए..तभी दिनकर ने उनको सहारा दिया. इसपर नेहरू ने कहा – शुक्रिया.., दिनकर तुरंत बोले-”जब-जब राजनीति लड़खड़ाएगी, तब-तब साहित्य उसे सहारा देगा.”

दिनकर ने यही तेवर ताउम्र बरकरार रखा. जब देश में आपातकाल लगा और सभी अपनी-अपनी कलम सत्ता के आगे झुका रहे थे, ऐसे वक्त में भी दिनकर ने क्रांतिकारी कविता लिखी


टूट नहीं सकता ज्वाला से, जलतों का अनुराग सखे!
पिला-पिला कर ख़ून हृदय का पाल रहा हूं आग सखे!

दिनकर सारी उम्र सियासत से लोहा लेते रहे. उन्होंने कभी किसी राजनेता की जय-जयकार नहीं की. दिनकर  ने देश के लिए अपना सबकुछ लुटा देने वाले सैनिकों के लिए लिखा

जला अस्थियां बारी-बारी
चिटकाई जिनमें चिंगारी,
जो चढ़ गये पुण्यवेदी पर
लिए बिना गर्दन का मोल
कलम, आज उनकी जय बोल

प्रमुख कृतियाँ

उन्होंने सामाजिक और आर्थिक समानता और शोषण के खिलाफ कविताओं की रचना की। एक प्रगतिवादी और मानववादी कवि के रूप में उन्होंने ऐतिहासिक पात्रों और घटनाओं को ओजस्वी और प्रखर शब्दों का तानाबाना दिया। उनकी महान रचनाओं में रश्मिरथी और परशुराम की प्रतीक्षा शामिल है। उर्वशी को छोड़कर दिनकर की अधिकतर रचनाएँ वीर रस से ओत प्रोत है। भूषण के बाद उन्हें वीर रस का सर्वश्रेष्ठ कवि माना जाता है।

ज्ञानपीठ से सम्मानित उनकी रचना उर्वशी की कहानी मानवीय प्रेम, वासना और सम्बन्धों के इर्द-गिर्द घूमती है। उर्वशी स्वर्ग परित्यक्ता एक अप्सरा की कहानी है। वहीं, कुरुक्षेत्र, महाभारत के शान्ति-पर्व का कवितारूप है। यह दूसरे विश्वयुद्ध के बाद लिखी गयी रचना है। वहीं सामधेनी की रचना कवि के सामाजिक चिन्तन के अनुरुप हुई है। संस्कृति के चार अध्याय में दिनकरजी ने कहा कि सांस्कृतिक, भाषाई और क्षेत्रीय विविधताओं के बावजूद भारत एक देश है। क्योंकि सारी विविधताओं के बाद भी, हमारी सोच एक जैसी है।


सम्मान

  • 1999 में भारत सरकार ने रामधारी सिंह दिनकर की स्मृति में डाक टिकट जारी किया।
  • दिनकरजी को उनकी रचना कुरुक्षेत्र के लिये काशी नागरी प्रचारिणी सभा, उत्तरप्रदेश सरकार और भारत सरकार से सम्मान मिला।
  • संस्कृति के चार अध्याय के लिये उन्हें 1959 में साहित्य अकादमी से सम्मानित किया गया।
  • भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉ राजेंद्र प्रसाद ने उन्हें 1959 में पद्म विभूषण से सम्मानित किया।
  • भागलपुर विश्वविद्यालय के तत्कालीन कुलाधिपति और बिहार के राज्यपाल जाकिर हुसैन, जो बाद में भारत के राष्ट्रपति बने, ने उन्हें डॉक्ट्रेट की मानद उपाधि से सम्मानित किया।
  • गुरू महाविद्यालय ने उन्हें विद्या वाचस्पति के लिये चुना। 1968 में राजस्थान विद्यापीठ ने उन्हें साहित्य-चूड़ामणि से सम्मानित किया।
  • वर्ष 1972 में काव्य रचना उर्वशी के लिये उन्हें ज्ञानपीठ से सम्मानित किया गया।
  • 1952 में वे राज्यसभा के लिए चुने गये और लगातार तीन बार राज्यसभा के सदस्य रहे।


रामधारी सिंह दिनकर को मरणोपरान्त सम्मान

  • 30 सितम्बर 1987 को उनकी 13वीं पुण्यतिथि पर तत्कालीन राष्ट्रपति जैल सिंह ने उन्हें श्रद्धांजलि दी।
  • 1999 में भारत सरकार ने उनकी स्मृति में डाक टिकट जारी किया।
  • केंद्रीय सूचना और प्रसारण मन्त्री प्रियरंजन दास मुंशी ने उनकी जन्म शताब्दी के अवसर पर रामधारी सिंह दिनकर- व्यक्तित्व और कृतित्व पुस्तक का विमोचन किया।
  • उनकी जन्म शताब्दी के अवसर पर बिहार के मुख्यमन्त्री नीतीश कुमार ने उनकी भव्य प्रतिमा का अनावरण किया। कालीकट विश्वविद्यालय में भी इस अवसर को दो दिवसीय सेमिनार का आयोजन किया गया।
  • आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने कहा था “दिनकरजी अहिंदी भाषियों के बीच हिन्दी के सभी कवियों में सबसे ज्यादा लोकप्रिय थे और अपनी मातृभाषा से प्रेम करने वालों के प्रतीक थे।”
  • हरिवंश राय बच्चन ने कहा था “दिनकरजी को एक नहीं, बल्कि गद्य, पद्य, भाषा और हिन्दी-सेवा के लिये अलग-अलग चार ज्ञानपीठ पुरस्कार दिये जाने चाहिये।”
  • रामवृक्ष बेनीपुरी ने कहा था “दिनकरजी ने देश में क्रान्तिकारी आन्दोलन को स्वर दिया।”
  • नामवर सिंह ने कहा है “दिनकरजी अपने युग के सचमुच सूर्य थे।”
  • प्रसिद्ध साहित्यकार राजेन्द्र यादव ने कहा था कि दिनकरजी की रचनाओं ने उन्हें बहुत प्रेरित किया।
  • प्रसिद्ध रचनाकार काशीनाथ सिंह के अनुसार ‘दिनकरजी राष्ट्रवादी और साम्राज्य-विरोधी कवि थे।


रामधारी सिंह दिनकर एक ‘जनकवि’

दिनकर (Ramdhari singh) वह कवि थे जो सत्ता के करीब रहकर भी कभी जनता से दूर नहीं हुए. उनकी लेखनी हर दौर में प्रासंगिक बनी रही दिनकर की ताकत ही यही थी कि वे संभल-संभल कर या सेलेक्टिव तरीके से आहें भरने वाले लेखकों-कवियों में से नहीं थे, न ही राजनीतिक दलों या विचारों के नफ़े-नुकसान के गणित से अपना ईमान तय करते थे.दिनकर हमेशा ही मानव-मात्र के दुख-दर्द से पीड़ित होने वाले कवि थे. राष्ट्रहित उनके लिए सर्वोपरि था.यही कारण है की वह जन-जन के कवि बन पाए और आज़ाद भारत में उन्हें राष्ट्रकवि का दर्जा मिला.

दिनकर जी (Ramdhari singh) की निष्पक्षता और सप्स्टवादी राष्ट्रहित सर्वोपरि की भावना को देखकर यह बात ज़रूर कहनी चाहिए कि दिनकर को इस ऊंचे ओहदे पर देश की जनता ने बिठाया है, न कि किसी राजनीतिक धड़े ने या विशिष्ट विचारों के प्रति प्रतिबद्धता रखने वाले एकांगी दृष्टि-युक्त समालोचकों ने वे तो झक मारकर दिनकर के योगदान को स्वीकार करने के लिए मजबूर हुए हैं.

 

दिनकर ने  कहा इजाजत लेकर लिखने से बेहतर मैं लिखना छोड़ दूं

जब दिनकर (Ramdhari singh) अंग्रेजी सरकार की नौकरी कर रहे थे. उस दौरान एक बार जब उनको ‘हुंकार’ काव्य संग्रह के लिए अंग्रेजी हुकूमत ने बुलाया और पूछा कि इसको लिखने से पहले उन्होंने इजाजत क्यों नहीं ली तो दिनकर ने कहा, ”मेरा भविष्य इस नौकरी में नहीं साहित्य में है और इजाजत लेकर लिखने से बेहतर मैं यह समझूंगा कि मैं लिखना छोड़ दूं.”

Q : रामधारी सिंह दिनकर की कौन सी कविता है?
Ans : कविता संग्रह
रेणुका / रामधारी सिंह “दिनकर” (1935)
हुंकार / रामधारी सिंह “दिनकर” (1938)
रसवन्ती / रामधारी सिंह “दिनकर” (1939)
द्वन्द्वगीत / रामधारी सिंह “दिनकर” (1940)
कुरुक्षेत्र / रामधारी सिंह “दिनकर” (1946)
धूपछाँह / रामधारी सिंह “दिनकर” (1946)
सामधेनी / रामधारी सिंह “दिनकर” (1947)
बापू / रामधारी सिंह “दिनकर” (1947)
इतिहास के आँसू / रामधारी सिंह “दिनकर” (1951)
धूप और धुआँ / रामधारी सिंह “दिनकर” (1951)
रश्मिरथी / रामधारी सिंह “दिनकर” (1954)
नीम के पत्ते / रामधारी सिंह “दिनकर” (1954)
दिल्ली / रामधारी सिंह “दिनकर” (1954)
नील कुसुम / रामधारी सिंह “दिनकर” (1955)
नये सुभाषित / रामधारी सिंह “दिनकर” (1957)
सीपी और शंख / रामधारी सिंह “दिनकर” (1957)
परशुराम की प्रतीक्षा / रामधारी सिंह “दिनकर” (1963)
हारे को हरि नाम / रामधारी सिंह “दिनकर” (1970)
प्रणभंग / रामधारी सिंह “दिनकर” (1929)
सूरज का ब्याह / रामधारी सिंह “दिनकर” (1955)
कविश्री / रामधारी सिंह “दिनकर” (1957)
कोयला और कवित्व / रामधारी सिंह “दिनकर” (1964)
मृत्तितिलक / रामधारी सिंह “दिनकर” (1964)

 

Q : दिनकर के काव्य का मूल स्वर क्या है?
Ans : दिनकर जी (Ramdhari singh) के काव्य का मूल स्वर ओज हैं।

Q : रामधारी सिंह दिनकर का देहांत कहाँ हुआ ?
Ans : रामधारी सिंह दिनकर का देहांत 24 अप्रैल, 1974 को चेन्नई में हुई ।

Q : रामधारी धारी सिंह दिनकर का जन्म कब हुआ था?
Ans : रामधारी सिंह ‘दिनकर’ का जन्म’ 23 सितम्‍बर 1908 हुआ था

Q : रामधारी सिंह दिनकर की कविता उर्वशी
Ans : ऋग्वेद में वैदिक संस्कृति की पहली कथा उर्वशी और राजा पुरुरवा की है। दो भिन्न संस्कृतियों की टकहराट की प्रतीक बन गयी है यह मार्मिक प्रणय-गाथा। उर्वशी के लिए रामधारी सिंह ‘दिनकर’ (Ramdhari singh) को ज्ञानपीठ सम्मान से सम्मानित किया गया था।

उर्वशी स्वर्गलोक की मुख्य अप्सरा थी। वह देवराज इन्द्र के दरबार में हर शाम नृत्य किया करती थी। वह सुन्दर थी, उसने अपना हृदय किसी को अर्पित नहीं किया था। उर्वशी सभी देवताओं की महिला मित्र के रूप में ही जानी-मानी जाती थी।

एक बार वह और उसकी सखी चित्रलेखा और अन्य अप्सराएं, दोनों भू-लोक पर घूमने निकलीं। वहाँ एक असुर की उन पर दृष्टि जा पड़ी और उसने उनका अपहरण कर लिया।

वह उन्हें एक रथ में लिये चला जा रहा था और वे जोर-जोर से विलाप कर रही थीं कि भूलोक के एक राजा ‘पुरुरवा’ ने उनका चीत्कार सुन लिया। पुरुरवा सिंह के समान निर्भीक था, उसने बिना किसी हिचकिचाहट के असुर पर आक्रमण कर दिया। अन्ततः उसने असुर को अपनी तलवार से मौत घाट उतार दिया।

पुरुरवा और उर्वशी के बीच पनप रहे प्रेम के बीच निम्नलिखित पंक्तियां पुरुरवा के द्वारा कही गयीं हैं-

मर्त्य मानव की विजय का तूर्य हूँ मैं,
उर्वशी! अपने समय का सूर्य हूँ मैं
अंध तम के भाल पर पावक जलाता हूँ,
बादलों के सीस पर स्यंदन चलाता हूँ
रामधारी सिंह दिनकर का साहित्यिक परिचय

उर्वशी की कहानी मानवीय प्रेम, वासना और सम्बन्धों के इर्द-गिर्द घूमती है। उर्वशी स्वर्ग परित्यक्ता एक अप्सरा की कहानी है।

Q : रामधारी सिंह दिनकर किस युग के कवि हैं ?
Ans : रामधारी सिंह दिनकर (Ramdhari singh) आधुनिक युग के श्रेष्ठ वीर रस के कवि के रूप में स्थापित हैं।

Q : रामधारी सिंह दिनकर जन्म
Ans : दिनकर’ जी का जन्म 24 सितंबर 1908 को बिहार के बेगूसराय जिले के सिमरिया गाँव में एक सामान्य किसान ‘रवि सिंह’ तथा उनकी पत्नी ‘मनरूप देवी’ के पुत्र के रूप में हुआ था। दिनकर (Ramdhari singh) दो वर्ष के थे, जब उनके पिता का देहावसान हो गया। परिणामत: दिनकर और उनके भाई-बहनों का पालन-पोषण उनकी विधवा माता ने किया। दिनकर का बचपन और कैशोर्य देहात में बीता, जहाँ दूर तक फैले खेतों की हरियाली, बांसों के झुरमुट, आमों के बग़ीचे और कांस के विस्तार थे। प्रकृति की इस सुषमा का प्रभाव दिनकर के मन में बस गया, पर शायद इसीलिए वास्तविक जीवन की कठोरताओं का भी अधिक गहरा प्रभाव पड़ा।

Q : रामधारी सिंह दिनकर की भाषा शैली
Ans : रामधारी सिंह दिनकर (Ramdhari singh dinkar) स्वभाव से सौम्य और मृदुभाषी थे, लेकिन जब बात देश के हित-अहित की आती थी तो वह बेबाक टिप्पणी करने से कतराते नहीं थे।
रामधारी सिंह दिनकर का व्यक्तित्व एवं कृतित्व

Q : रामधारी सिंह दिनकर की काव्यगत विशेषताएँ
Ans : धुरियों के बीच शब्दों की अद्भुत रेखा खींचती उनकी रचनाओं की काव्यगत विशेषताएँ अतुलनीय और अद्वितीय हैं। देखा जाए तो, दिनकर जी (Ramdhari singh) सुकुमार कल्पनाओं से भरी पँक्तियाँ खूब लिखते थे। उनके काव्य-ग्रंथ “रसवंती” की कविताएँ और “उर्वशी” का काव्य तो प्रेम,सौंदर्य और श्रृंगार का खजाना हैं।

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