Satyendra Nath Bose in Hindi | Google pays tribute to mathematician and physicist Satyendra Nath Bose | Satyendra Nath Bose Biography in Hindi | सत्येंद्र नाथ बोस का जीवन परिचय

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Satyendra Nath Bose
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Satyendra Nath Bose in Hindi | Google pays tribute to mathematician and physicist Satyendra Nath Bose | Satyendra Nath Bose Biography in Hindi | सत्येंद्र नाथ बोस का जीवन परिचय

Satyendra Nath Bose : हम सब जानते हैं हमारा देश का इतिहास वैज्ञानिक खोजों का साक्षी रहा है. शून्य की खोज से लेकर दशमलव की खोज देश के गौरवपूर्ण इतिहास का बखान करती है. उस काल को देश के विज्ञान का स्वर्णिम काल भी कहा जा सकता है जब देश में नई-नई खोजें होती थी. बौद्धिक रूप से आज भी हम दुनिया में प्रथम स्थान रखते हैं.

इसी कड़ी में आज sangeetaspen.com आपका परिचय एक ऐसे भारतीय वैज्ञानिक से कराएँगे जिसका लोहा स्वयं अल्बर्ट आइन्स्टाइन भी मानते थे उनका नाम है Satyendra Nath Bose और आज यानी 4 जून 2022 को गूगल ने अपने होम पेज पर Satyendra Nath Bose की एक एनिमेटेड तस्वीर डालकर उन्हें श्रद्धांजलि दी


1920 के दशक में क्वांटम मैकेनिक्स के फील्ड में Satyendra Nath Bose के द्वारा दिए गए योगदान के लिए याद किया जाता है. उन्होंने Bose Statistics और Bose Condensate की स्थापना की थी. उन्हें भारत सरकार द्वारा 1954 में Padma Vibhushan का भी अवार्ड दिया गया था.

सत्येंद्र नाथ बोस (Satendra Nath Bose) Google ने शनिवार को भारतीय भौतिक विज्ञानी और गणितज्ञ सत्येंद्र नाथ बोस को बोस-आइंस्टीन कंडेनसेट में उनके योगदान के लिए श्रद्धांजलि दी। 1924 में आज ही के दिन उन्होंने अल्बर्ट आइंस्टीन को अपने क्वांटम फॉर्मूलेशन भेजे थे, जिन्होंने तुरंत इसे क्वांटम यांत्रिकी में एक महत्वपूर्ण खोज के रूप में मान्यता दी।

सत्येंद्र नाथ बोस ( Satyendra Nath Bose ) की प्रसिद्धि की यात्रा शिक्षाविदों में शुरू हुई। हर दिन, उनके पिता, जो एक एकाउंटेंट थे, काम पर जाने से पहले उन्हें हल करने के लिए एक अंकगणितीय समस्या लिखते थे, जिससे बोस की गणित में रुचि बढ़ जाती थी। 15 साल की उम्र में, बोस ने कलकत्ता के प्रेसीडेंसी कॉलेज में विज्ञान स्नातक की डिग्री हासिल करना शुरू किया और इसके तुरंत बाद कलकत्ता विश्वविद्यालय में अनुप्रयुक्त गणित में मास्टर की उपाधि प्राप्त की। दोनों डिग्रियों में अपनी कक्षा में शीर्ष पर रहते हुए, उन्होंने शिक्षा जगत में अपनी प्रतिष्ठित स्थिति को मजबूत किया।

सत्येंद्र नाथ बोस ( Satendra Nath Bose, जन्म:1 जनवरी, 1894 कोलकाता; मृत्यु:4 फ़रवरी, 1974 कोलकाता) प्रसिद्ध गणितज्ञ और भौतिक शास्त्री थे। भौतिक शास्त्र में दो प्रकार के अणु माने जाते हैं- बोसॉन और फर्मियान। इनमें से बोसॉन सत्येन्द्र नाथ बोस के नाम पर ही है।

जीवन परिचय

Satyendra Nath Bose का जन्म 1 जनवरी 1894 को कोलकाता में हुआ था। मित्रों के बीच ‘सत्येन’ और विज्ञान जगत में ‘एस. एन. बोस’ के नाम से जाने गये। इनके पिता श्री ‘सुरेन्द्र नाथ बोस’ रेल विभाग में काम करते थे। महान् वैज्ञानिक प्राय: दो प्रकार के होते हैं-

वे जो अपनी स्कूली पढ़ाई में कमज़ोर होते हैं।
वे जो शुरू से ही पढ़ाई में अव्वल होते हैं।

गणित में मिले 100 में 110 अंक

महान वैज्ञानिक आइंस्टाइन पहले वर्ग में आते हैं और भारतीय वैज्ञानिक सत्येंद्र नाथ बोस दूसरे वर्ग में आते हैं। ये पढ़ाई में हमेशा से ही अच्छे थे, विशेष तौर से गणित में बहुत कुशाग्र थे। एक बार गणित के शिक्षक ने श्री बोस को 100 में से 110 अंक दिये थे क्योंकि इन्होंने सभी सवालों को हल करने के साथ-साथ कुछ सवालों को एक से ज़्यादा तरीक़े से हल किया था।

शिक्षा

बोस ने अपनी स्कूली शिक्षा ‘हिन्दू हाईस्कूल’ कोलकाता से पूरी की उसके बाद ‘प्रेसिडेंसी कॉलेज’ में प्रवेश लिया जहाँ पर उस समय श्री ‘जगदीश चंद्र बोस’ और ‘आचार्य प्रफुल्ल चंद्र राय’ जैसे महान् शिक्षक अध्यापन करते थे। सत्येंद्र नाथ बोस ने सन् 1913 में बी. एस. सी. और सन् 1915 में एम. एस. सी. प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण किया।

मेघनाथ साहा और प्रशांत चंद्र महालनोविस बोस के सहपाठी थे। मेघनाथ साहा और सत्येंद्र नाथ बोस ने बी. एस. सी. तथा एम. एस. सी. की पढ़ाई साथ-साथ की। बोस सदैव कक्षा में प्रथम स्थान पर और साहा द्वितीय स्थान पर रहते थे।

उस समय भारत में विश्वविद्यालय और कॉलेज बहुत कम होते थे। अतः विज्ञान शिक्षा प्राप्त छात्रों का भविष्य बहुत निश्चित नहीं होता था। इसलिए बहुत सारे छात्र विज्ञान की बजाय दूसरे विषय को चुनते थे। परंतु कुछ छात्रों ने ऐसा नहीं किया। और ये वही लोग हैंजिन्होंने भारतीय विज्ञान में नये अध्याय जोड़े।

सी. वी. रामन का जीवन इसका बहुत अच्छा उदाहरण है जो विज्ञान शिक्षा प्राप्त करने के बाद सरकारी नौकरी करने लगे, किंतु विज्ञान के लगाव के कारण नौकरी के साथ-साथ दस वर्षों तक शोधकार्य में भी लगे रहे और अवसर मिलने पर जमी जमायी सरकारी नौकरी छोड़कर पूरी तरह से विज्ञान की साधना में लग गये।

सर आशुतोष मुखर्जी ने रामन को यह अवसर प्रदान किया और बोस एवं साहा की सहायता की। आशुतोष मुखर्जी पेशे से वकील थे जो आगे चलकर कोलकाता उच्च न्यायालय के न्यायाधीश बने। उस समय बहुत कम भारतीय इतने ऊँचे पद पर पहुँच पाते थे। आशुतोष मुखर्जी अपने विषय में पारंगत थे और साथ ही वह विज्ञान में भी बहुत रुचि रखते थे तथा अपने अतिरिक्त समय में वे भौतिक-गणित पर व्याख्यान भी देते थे।


कार्यक्षेत्र

सत्येंद्रनाथ बोस ने अपना कार्य क्षेत्र विज्ञान को चुना। जब बोस और साहा कोलकाता विश्वविद्यालय में पढ़ाते थे, उस समय बोस ने सोचा कि विज्ञान में कुछ नया करना चाहिए। बोस और साहा ने निश्चय किया कि पढ़ाने के साथ-साथ कुछ समय शोधकार्य में भी लगायेंगे। शोध के लिए नए-नए विचारों की आवश्यकता होती है इसलिए बोस ने गिब्बस और प्लांक की पुस्तकें पढ़ना शुरू किया।

उस समय विज्ञान सामग्री अधिकांशत: फ़्रांसीसी या जर्मन भाषा में होती थी।अतः व्यक्ति को इन भाषाओं का ज्ञान होना आवश्यक था। बोस ने इन भाषाओं को न केवल बहुत जल्दी सीखा बल्कि उन्होंने इन भाषाओं में लिखी कविताओं का बांग्ला भाषा में अनुवाद भी करना प्रारंभ कर दिया था।

शोध के लिए

कोलकाता विश्वविद्यालय के पुस्तकालय में विज्ञान के नए विषयों पर लिखी पुस्तकें नहीं थीं। बोस और साहा को डॉ. ब्रुह्ल के विषय में पता चला जिनके पास ये पुस्तकें थीं। डॉ. ब्रुह्ल आस्ट्रिया के निवासी थे। उनका विषय जीव-विज्ञान था। आस्ट्रिया में स्वास्थ्य ख़राब रहने के कारण से चिकित्सकों ने उन्हें परामर्श दिया कि वे ऐसी जगह जाकर रहें जहाँ का मौसम गर्म हो। इसलिए भारतीय पौधों का अध्ययन करने के लिए डॉ. ब्रुह्ल भारत आ गए थे।

कोलकाता में रहते हुए डॉ. ब्रुह्ल का विवाह हो गया और जीवोपार्जन के लिए नौकरी उनकी आवश्यकता हो गई। इस प्रकार वे बंगाल कॉलेज में शिक्षक बन गए। डॉ. ब्रुह्ल का विषय वनस्पति विज्ञान था किंतु वह भौतिकी पढ़ाने का कार्य अच्छी तरह से करते थे। डॉ. ब्रुह्ल के पास बहुत सारी अच्छी पुस्तकें थीं जो बोस और साहा ने पढ़ने के लिए उनसे प्राप्त कीं।

अन्य भाषाओं का ज्ञान

बोस का मानना था कि यदि किसी विषय का अध्ययन करना है तो उसके मूल तक जाना आवश्यक है, अर्थात विषय विशेषज्ञों द्वारा किए गए कार्य का अध्ययन करना। बोस इन पुस्तकों को स्वयं तो पढ़ने में समर्थ थे क्योंकि उस समय अधिकांश शोधकार्य जर्मन और फ़्रांसीसी भाषाओं में ही उपलब्ध रहता था। परंतु दूसरों के फ़ायदे के लिए जिन्हें इन भाषाओं का ज्ञान नहीं था, बोस ने कुछ महत्त्वपूर्ण शोध पत्रों को अंग्रज़ी में अनुवाद करने का निश्चय किया। विषय और भाषा सीखने का यह एक अच्छा तरीक़ा था।

बोस ने ‘सापेक्षता सिद्धांत’ के शोधपत्रों का अनुवाद प्रारंभ किया जिन्हें बाद में कोलकाता विश्वविद्यालय द्वारा प्रकाशित कराया गया। आइंस्टाइन ने, जिन्होंने ये शोधपत्र जर्मन भाषा में लिखे थे, अंग्रेज़ी में अनुवाद करने का अधिकार इंग्लैण्ड के मेथुइन को दिया था। जब मेथुइन को इस बात का पता चला तो उन्होंने इस प्रकाशन को रोकने का प्रयास किया। भाग्यवश आइंस्टाइन ने मध्यस्थता करते हुए कहा कि यदि बोस की पुस्तक केवल भारत में ही वितरित होती है तो उन्हें कोई आपत्ति नहीं है।

Satyendra Nath Bose Biography in Hindi
Satyendra Nath Bose Biography in Hindi

बोस पढ़ने और अनुवाद के अलावा समस्याओं के हल ढूंढ़ने में व्यस्त रहते थे। एक साल के अंदर ही बोस और साहा ने एक शोधपत्र लिखा जो इंग्लैण्ड के प्रसिद्ध जर्नल ‘फिलासॉफिकल मैगजीन’ में प्रकाशित हुआ। सन् 1919 में बोस के दो शोधपत्र ‘बुलेटिन आफ दि कलकत्ता मैथमेटिकल सोसायटी’ में और सन् 1920 में ‘फिलासॉफिकल मैगजीन’ में प्रकाशित हुए। इसमें कोई संदेह नहीं कि यह सब अच्छा कार्य था परंतु ऐसा भी नहीं था जिससे पूरी दुनिया चकित हो जाए।

सत्येन्द्र नाथ बोस ललित कला और संगीत प्रेमी थे। बोस के मित्र बताते थे कि उनके कमरे में किताबों, आइंस्टीन, रमन आदि वैज्ञानिकों के चित्र के अलावा एक वाद्य यंत्र यसराज हमेशा रहता था। बोस यसराज और बांसुरी बजाया करते थे। परंतु यसराज तो किसी विशेषज्ञ की तरह बजाते थे।

बोस के संगीत प्रेम का दायरा लोक संगीत, भारतीय संगीत से लेकर पाश्चात् संगीत तक फैला हुआ था। प्रो. धुरजटी दास बोस के मित्र थे। जब प्रो. दास भारतीय संगीत पर पुस्तक लिख रहे थे तब बोस ने उन्हें काफ़ी सुझाव दिए थे। प्रो. दास के अनुसार बोस यदि वैज्ञानिक नहीं होते तो वह एक संगीत गुरु होते।

सन 1921 में ढाका विश्वविद्यालय की स्थापना हुई। कुलपति डॉ. हारटॉग ढाका विश्वविद्यालय में अच्छे विभागों की स्थापना करना चाहते थे। उन्होंने भौतिकी विभाग में रीडर पद के लिए सत्येन्द्र नाथ बोस को चुना। सन् 1924 में साहा ढाका आए, जो कि उनका गृहनगर था और अपने मित्र बोस से भेंट की।

बोस ने साहा को बताया कि वह कक्षा में प्लांक के विकिरण नियम को पढ़ा रहे हैं, परंतु इस नियम के लिए पुस्तकों में दी गई व्युत्पत्ति से वे सहमत नहीं हैं। इस पर साहा ने आइंस्टाइन और प्लांक के द्वारा हाल ही में किए गए कार्यो के प्रति बोस का ध्यान आकर्षित किया।

ढाका विश्वविद्यालय से अवकाश

बोस ने वर्ष 1924 की शुरुआत में ढाका विश्वविद्यालय में 2 वर्ष के अवकाश के लिए आवेदन किया था ताकि वे यूरोप जाकर नवीनतम विकास कार्यों की जानकारी ले सकें परंतु महीनों तक ढाका विश्वविद्यालय से कोई उत्तर नहीं आया और इसी दौरान बोस ने अपना सबसे प्रसिद्ध शोधपत्र लिखा जो उन्होंने आइंस्टाइन को भेजा और उनसे प्रशंसा-पत्र भी प्राप्त किया था।

आइंस्टाइन जैसे महान् वैज्ञानिक से प्रशंसा-पत्र प्राप्त करना ही अपने आप में बड़ी बात थी। जब बोस ने यह प्रशंसा-पत्र विश्वविद्यालय के कुलपति को दिखाया तब कहीं बोस को 2 वर्ष के अवकाश की अनुमति मिली। यूरोप में लगभग दो वर्ष रहने के बाद सन् 1926 में बोस ढाका विश्विद्यालय वापस लौट आए।

ढाका लौटने के पश्चात् बोस से उनके कुछ साथियों ने ढाका विश्वविद्यालय में प्रोफेसर के पद के लिए आवेदन करने हेतु प्रेरित किया। किंतु प्रोफेसर के लिए पी-एच. डी. होना आवश्यक थी और बोस केवल स्नातकोत्तर थे। उनके मित्रों ने कहा कि आपको चिंता नहीं करनी चाहिए क्योंकि अब आप विख्यात हो गए हैं

और आप आइंस्टाइन को भी जानते है आप आइंस्टाइन से एक प्रशंसा-पत्र ले लीजिए। आइंस्टाइन ने तुरंत प्रशंसा-पत्र दे दिया परंतु उन्हें इस बात पर बड़ा अश्चर्य हुआ कि भारत में व्यक्ति को उसके द्वारा किए गए काम के बजाय डिग्री के आधार पर नौकरी मिलती है।

आइंस्टाइन के साथ सत्येंद्रनाथ बोस

अब बोस ने अपने तरीक़े से प्लांक के नियम की नयी व्युत्पत्ति दी। बोस के इस तरीक़े ने भौतिक विज्ञान को एक बिलकुल ही नयी अवधारणा से परिचित कराया। बोस ने इस शोधपत्र को ‘फिलासॉफिकल मैगजीन’ में प्रकाशन के लिए भेजा परंतु इस बार उनके शोधपत्र को अस्वीकार कर दिया गया, जिससे बोस हतोत्साहित हुए क्योंकि उनका मानना था कि यह व्युत्पत्ति उनके पहले के कार्यों से कहीं ज़्यादा तार्किक थी। फिर बोस ने साहसिक निर्णय लिया।

उन्होंने इस शोधपत्र को आइंस्टाइन के पास बर्लिन भेजा, इस अनुरोध के साथ कि वे इस शोधपत्र को पढ़ें एवं अपनी टिप्पणी दें और यदि वे इसे प्रकाशन योग्य समझें तो जर्मन जर्नल ‘Zeitschrift fur Physik’ में प्रकाशन की व्यवस्था करें।

इस शोधपत्र को आइंस्टाइन ने स्वयं जर्मन भाषा में अनुदित किया तथा अपनी टिप्पणी के साथ ‘Zeitschrift fur Physik‘ में अगस्त 1924 में प्रकाशित करवाया। आइंस्टाइन ने इस शोधपत्र के सम्बंध में एक पोस्टकार्ड भी भेजा था जो बोस के लिए बहुत अधिक उपयोगी सिद्ध हुआ।

बोस-आइंसटाइन साँख्यिकी सिद्धांत

ग्रहों और उनके सम्बंधों को समझने के लिए न्यूटन के गुरुत्वाकर्षण सिद्धांत की आवश्यकता होती है। उसके अनुसार संसार की हर वस्तु अपने आस-पास पाई जाने वाली दूसरी वस्तु को अपनी ओर आकर्षित करती है। जैसे सूर्य ग्रहों को, पृथ्वी चंद्रमा को। यह सिद्धांत ज्यादातर जगहों पर तो लागू होता है, लेकिन बहुत सी ऐसी जगहें हैं, जहाँ पर यह काम नहीं आता। यदि हम गैसों के अणुओं की गति की बात करें, तो वहाँ पर यह नियम असहाय हो जाता है।

गैसों में असंख्य प्रकार के अणु पाए जाते हैं, जो सदैव गतिशील रहते हैं। इनकी गतिशीलता का गैस के दाब और ताप से एक ख़ास सम्बंध होता है। गैसों के इन अणुओं की गति को समझने के लिए गणित के औसत के नियम का सहारा लिया जाता है। इसे समझने के लिए मैक्सवेल और बोल्ट्जमैन ने जिस गणितीय सिद्धांत की व्युत्पत्ति की, उसे साँख्यिकी के नाम से जाना जाता है। साँख्यिकी औसत के गणित की बात करती है। आधुनिक भौतिक विज्ञान में इसकी आवश्यकता कदम-कदम पर पाई जाती है।
बोस-आइंसटाइन साँख्यिकी सिद्धांत

मैक्सवेल तथा वोल्ट्जमैन द्वारा आविष्कृत ये नियम तब तक सही से काम करते रहे, जब तक वैज्ञानिकों को सिर्फ परमाणुओं के बारे में जानकारी थी। लेकिन जैसे ही वैज्ञानिकों को यह पता चला कि परमाणु के भीतर भी अनेक प्रकार के परमाणु-कण पाए जाते हैं और उनकी गतियाँ बहुत अनोखी होती हैं, उनका यह नियम फेल हो गया। ऐसे में डॉ. सत्येंद्रनाथ बोस ने नये नियमों की खोज की, जो आगे चलकर ‘बोस-आइंसटाइन साँख्यिकी’ के नाम से जाने गये।

इस नियम के सामने आने के बाद वैज्ञानिकों ने परमाणु-कणों का गहन अध्ययन किया और पाया कि ये मुख्य रूप से दो प्रकार के होते हैं। इनमें से एक का नामकरण डॉ. बोस के नाम पर ‘बोसॉन’ रखा गया और दूसरे का नाम प्रसिद्ध वैज्ञानिक एनरिको फर्मी के नाम पर ‘फर्मिऑन’।

जिस व्यक्ति की मेधा को आइंसटाइन जैसे वैज्ञानिक ने न सिर्फ स्वीकारा बल्कि उसके साथ अपना नाम भी जोड़ा, उस व्यक्ति को नोबेल पुरस्कार न मिलना काफ़ी सवाल खड़े करता है।

यह बात इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि ज्यादातर वैज्ञानिकों का मानना है कि भौतिक विज्ञान पर जितना असर ‘बोस-आइंस्टाइन साँख्यिकी’ का पड़ा है, उतना असर तो शायद आने वाले समय में हिग्स बोसॉन का भी न हो।

अंतर्राष्ट्रीय वैज्ञानिकों से संबंध

अक्टूबर, 1924 में सत्येन्द्रनाथ यूरोप पहुँचे। बोस पहले एक वर्ष पेरिस में रहे। फ्रांस में रहते हुए बोस ने सोचा कि क्यों न ‘रेडियोधर्मिता’ के बारे में ‘मैडम क्यूरी’ से तथा ‘मॉरिस डी ब्रोग्ली’ (लुई डी ब्रोग्ली के भाई) से ‘एक्स-रे’ के बारे में कुछ सीखा जाए। मैडम क्यूरी की प्रयोगशाला में बोस ने कुछ जटिल गणितीय गणनाएँ तो कीं परंतु रेडियोधर्मिता के अध्ययन का सपना अधूरा रह गया। मॉरिस डी ब्रोग्ली के साथ बोस का अनुभव अच्छा रहा। ब्रोग्ली से इन्होंने एक्स-रे की नई तकनीकों के बारे में सीखा।

सत्येंद्रनाथ बोस

अक्टूबर, 1925 में बोस ने बर्लिन जाने का विचार बनाया जिससे वे अपने ‘मास्टर’ से मिल सकें। बोस आइंस्टाइन को ‘मास्टर’ कह कर सम्बोधित करते थे। वास्तव में बोस आइंस्टाइन के साथ काम करना चाहते थे। जब बोस बर्लिन पहुँचे तो उन्हें निराशा हुई क्योंकि आइंस्टाइन शहर से बाहर गए हुए थे। कुछ समय के बाद आइंस्टाइन वापस आए और बोस से मुलाकात की। बोस के शब्दों में ‘यह एक दिलचस्प मुलाकात थी।

उन्होंने सभी तरह के प्रश्न पूछे जैसे आपको (बोस) एक नई सांख्यिकी का विचार कैसे आया और इसका क्या महत्त्व है आदि।’ बोस को आइंस्टाइन के साथ काम करने का अवसर तो नहीं मिला पर उनसे हुई कई मुलाकातों से बोस को बहुत लाभ हुआ। आइंस्टाइन ने उन्हें एक परिचय पत्र भी दिया जिसने बोस के लिए बहुत सारे दरवाज़े खोल दिए।

प्लांक के नियम से प्रतिवाद

सत्येंद्र नाथ बोस ने Planck’s black body radiation law का गहन अध्यन्न किया और ब्लैक बॉडी रेडिएशन की फोटोन गैस के रूप में पहचान की। उन्होंने मेक्स प्लांक जिन्होंने क्वान्टम मेकेनिक्स की रचना की, के ब्लैक बॉडी रेडीयेशन नियम में लाइट क्वांटा या फोटोन गैस को लेकर प्रतिवाद था जिसको लेकर आइन्सटाइन भी असहमत थे। यह समय था 1920 का जब क्वान्टम मेकेनिक्स में यह गुत्थी की तरह थी, क्वान्टम मेकेनिक्स के विकास हो तो रहा था लेकिन गति बेहद धीमी थी क्योंकि कहीं न कहीं प्लांक्स के नियम को अगले चरण तक ले जाना था।

उसी समय भारत में ढाका विश्वविद्यालय के एक प्रोफेसर सत्येद्र नाथ बोस, क्वान्टम मेकेनिक्स के अध्यन्न में आए और उन्होंने 1924 को एक चार पृष्ठ के रिसेर्च पेपर लिखा जिसका शीर्षक था ‘Planck’s Law and the Hypothesis of Light Quanta (1924)’ जो आज मॉडर्न क्वान्टम मेकेनिक्स और कणों से जुड़ी किसी भी खोज, अध्ययन का आधार है।

सत्येंद्र नाथ का यह रिसेर्च पेपर आगे चलकर बोस–आइंस्टीन स्टेटिक्स और बोस–आइंस्टीन कनडेनसेट (एक तरह की स्टेट ऑफ मैटर) के रूप में बदला जिसकी खोज सत्येंद्र नाथ बोस (Satyendra Nath Bose) और आइंस्टीन ने खुद मिलकर की। उनके बारे में लिखा गया कि “Bose entered the quantum arena and set out to derive Plancks law treating radiation as a gas consisting of photons. What Bose had essentially introduced was a new counting rule for the states of a gas of photons – or the quanta of light – that explained Plancks law of thermal radiation at one stroke.”

बोस की प्रेरणा

नि:संदेह आइंस्टाइन ही बोस के जीवन की प्रेरणा थे। कहते हैं जब बोस को आइंस्टाइन की मृत्यु का समाचार मिला था तो वह भावुक होकर रो पड़े थे। आइंस्टाइन विज्ञान के क्षेत्र के महानायक थे और बोस उनमें ईश्वर की तरह श्रद्धा रखते थे।

निधन

सन 1974 में बोस के सम्मान में कलकत्ता विश्वविद्यालय ने एक अंतर्राष्ट्रीय संगोष्ठी का आयोजन किया। जिसमें देश-विदेश के कई वैज्ञानिक सम्मिलित हुए। इस अवसर उन्होंने कहा “यदि एक व्यक्ति अपने जीवन के अनेक वर्ष संघर्ष में व्यतीत कर देता है और अंत में उसे लगता है कि उसके कार्य को सराहा जा रहा है तो फिर वह व्यक्ति सोचता है कि अब उसे और अधिक जीने की आवश्यकता नहीं है।” और कुछ ही दिनों के बाद 4 फ़रवरी, 1974 को सत्येन्द्र नाथ बोस सचमुच हमारे बीच से हमेशा के लिए चले गए।

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