Veer Savarkar ka jivan parichay | Veer Savarkar Biography in Hindi

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Veer Savarkar ka jivan parichay
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Veer Savarkar  : वीर सावरकर (Veer Savarkar) का पूरा नाम विनायक दामोदर सावरकर (Vinayak Damodar Savarkar)

था। सावरकर एक भारतीय राष्ट्रवादी थे, जो एक राजनीतिक दल और राष्ट्रवादी संगठन हिंदू महासभा के प्रमुख सदस्य थे. सावरकर (Veer Savarkar) पेशे से वकील और भावुक लेखक थे.

उन्होंने कई कविताओं और नाटकों का मंचन किया था. सावरकर ने अपने जबरदस्त संस्कार और लेखन क्षमताओं के साथ अपनी विचारधारा और दर्शन के रूप में कई लोगों को प्रेरित किया, जिसका उद्देश्य हिंदुओं के बीच सामाजिक और राजनीतिक एकता को प्राप्त करना था.

‘हिंदुत्व’ शब्द जो भारत में हिंदू राष्ट्रवाद का एक रूप है, 1921 में सावरकर द्वारा अपनी एक रचना के माध्यम से लोकप्रिय हुआ था

अंग्रेज़ी सत्ता के विरुद्ध भारत की स्वतंत्रता के लिए संघर्ष करने वाले विनायक दामोदर सावरकर साधारणतया वीर सावरकर के नाम से विख्यात थे। वीर सावरकर (Veer Savarkar) का जन्म 28 मई 1883 को नासिक के भगूर गाँव में हुआ। उनके पिता दामोदर पंत गाँव के प्रतिष्‍ठित व्यक्तियों में जाने जाते थे। जब विनायक नौ साल के थे तभी उनकी माता राधाबाई का देहांत हो गया था।

विनायक दामोदर सावरकर, (Vinayak Damodar Savarkar) 20वीं शताब्दी के सबसे बड़े हिन्दूवादी थे। उन्हें हिन्दू शब्द से बेहद लगाव था। वह कहते थे कि उन्हें स्वातन्त्रय वीर की जगह हिन्दू संगठक कहा जाए। उन्होंने जीवन भर हिन्दू हिन्दी हिन्दुस्तान के लिए कार्य किया।

विनायक दामोदर सावरकर, (Vinayak Damodar Savarkar) यानी वीर सावरकर। ये महज एक नाम नहीं है बल्कि संघर्ष की एक ऐसी गाथा है, जिसका वर्णन शब्दों से परे है। जिस व्यक्ति ने एक दशक से भी ज्यादा समय तक कालापानी की सज़ा भुगती,

क्या होता है कालापानी?

कालापानी मतलब यातना। कालापानी मतलब नरक। कालापानी मतलब क्रूर अत्याचार। कालापानी मतलब 24 घंटे त्रासदी वाला जीवन।

कालापानी में कक्ष कारागारों को सेल्युलर जेल कहा जाता था। वहाँ कड़ा पुलिस पहरा रहता था। सावरकर (Veer Savarkar) अपनी पुस्तक ‘काला पानी’ में इस नारकीय यातना का वर्णन करते हैं। 750 कोठरियाँ, जिनमें बंद होते ही कैदी के दिलोदिमाग पर घुप्प अँधेरा छा जाता था। अंडमान के सुन्दर द्वीप पर ये अंग्रेजों का नरक था।

यद्यपि ‘काला पानी’ एक गद्य उपन्यास की तरह है, जिसे सावरकर ने अपनी जीवनी के रूप में नहीं लिखा है और इसके तमाम पात्र भी काल्पनिक हैं, लेकिन यातनाओं और जेल का जो विवरण है, वो समझने वाले समझ जाते हैं कि सत्य है।

इस पुस्तक के बारे में कहा जाता है कि इस पर फ़िल्म बनाने के लिए सावरकर के पास ऑफर आया था। उनके निजी सचिव बाल सावरकर लिखते हैं कि सुधीर फड़के इस पर फिल्म बनाना चाहते थे लेकिन उनकी माँग थी कि रफीउद्दीन नामक किरदार को बदल दिया जाए और उसकी जगह किसी हिन्दू पात्र को दे दी जाए। सावरकर को ये स्वीकार्य नहीं था। उन्होंने स्पष्ट कह दिया कि वो इस तरह एक दूसरे मजहब के किरदार का नाम हिन्दू का करने की अनुमति कभी नहीं दे सकते।

सावरकर ने कह दिया कि अगर उन लोगों को समुदाय विशेष को शिष्ट और साधु प्रवृत्ति का दिखाने की इतनी ही हूल मची है तो कोई एक नया किरदार गढ़ लें लेकिन वो इस तरह से पहले से बने हुए किरदार के नाम में परिवर्तन की अनुमति नहीं देंगे। आज भी बॉलीवुड का यही ट्रेंड है। समुदाय विशेष के किरदार को बढ़ा-चढ़ा कर दिखाया जाता है।

उन्हें एक इमानदार दोस्त, त्यागी व्यक्ति और भोले-भाले इंसानों के रूप में चित्रित किया जाता है जबकि पंडितों को चुंगला, बातें इधर-उधर करने वाला और शोषणकर्ता के रूप में दिखाया जाता है।

वीर सावरकर ने जिक्र किया है कि किस तरह वहाँ इंसानों को जानवरों से भी बदतर समझा जाता था। अंग्रेज उन्हें कोल्हू के बैल की जगह जोत देते थे। पाँव से चलने वाले कोल्हू में एक बड़ा सा डंडा लगा कर उसके दोनों तरफ दो आदमियों को लगाया जाता था

और उनसे दिन भर काम करवाया जाता था। जो काम बैलों का था, वो इंसानों से कराए जाते थे। जो टालमटोल करते, उन्हें तेल का कोटा दे दिया जाता था और ये जब तक पूरा नहीं होता था, उन्हें रात का भोजन भी नहीं दिया जाता था। उन्हें हाँकने के लिए वार्डरों तक की नियुक्ति की गई थी।

Veer Savarkar ka jivan parichay
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सावरकर जहाँ भी जाते थे, वहाँ उनके ‘अपने लोग’ मिल ही जाते थे। इसी तरह अंडमान में ही कुछ ऐसे वयोवृद्ध स्वतंत्रता सेनानी रह रहे थे, जो 1857 के युद्ध में अपने रोल के कारण यहाँ बंद थे। ये ऐसे लोग थे, जो बुढ़ापे तक सज़ा काटने के बाद वहीं बस गए थे। ऐसे देशभक्तों ने सावरकर (Veer Savarkar) से संपर्क किया था और उन लोगों की बातचीत होते रहती थी।

उनके अनुभवों से सावरकर ने कई चीजें सीखीं। तभी उन्होंने अंडमान में कागज़-कलम न मिलने पर दीवारों पर कीलों, काँटों और अपने नाखूनों तक से साहित्य रचे। कई पंक्तियों को कंठस्थ किया और आमजनों तक पहुँचाया।

भले ही ‘काला पानी’ में सावरकर ने काल्पनिक पात्र गढ़ें हों लेकिन वो सभी वास्तविक पात्रों से ही प्रेरित थे। उनके नाम बदले हुए थे। अंडमान में कई छँटे हुए बदमाश भी थे, जिनका जिक्र किया गया है।

सावरकर (Veer Savarkar) अपनी एक अन्य पुस्तक ‘मेरा आजीवन कारावास‘ में लिखते हैं कि उन्हें भी कोल्हू के बैल का काम दिया गया था। उससे पहले उनसे छिलका कूटवाने का काम लिया जाता था।

अचानक एक दिन अंग्रेजों ने कहा कि ये करते-करते उनके हाथ कठोर हो गए होंगे, इसीलिए अब उन्हें कोल्हू वाला काम दिया जा रहा है।

सिर चकराता था। लंगोटी पहन कर कोल्हू में काम लिया जाता था। वो भी दिन भर। शरीर इतना थका होता था कि उनकी रातें करवट बदलते-बदलते कटती थी। अन्य बंदीगण सावरकर से प्रेम करने लगे थे, इसीलिए वो आकर उनकी मदद कर देते थे।

उनके कपड़े तक धो देते थे और बर्तन माँज देते थे। सावरकर के रोकने के बाद वो मिन्नतें करने लगते थे, जिसके बाद सावरकर ने उन्हें मना करना छोड़ दिया क्योंकि उन बंदियों को इसमें ही ख़ुशी होती थी। धीरे-धीरे यातनाएँ और भी असह्य होती चली गईं।

स्थिति ये आ गई कि सावरकर (Veer Savarkar) को आत्महत्या करने की इच्छा होती। इतनी भयंकर यातनाएँ दी जातीं और वहाँ से निकलने का कोई मार्ग था नहीं, भविष्य अंधकारमय लगता- जिससे वो सोचते रहते कि वो फिर देश के किसी काम आ पाएँगे भी या नहीं।

एक बार कोल्हू पेरते-पेरते उन्हें चक्कर आ गया और फिर उन्हें आत्महत्या का ख्याल आया। सावरकर लिखते हैं कि उनके मन और बुद्धि में उस दौरान तीव्र संघर्ष चल रहा था और बुद्धि इसमें हारती हुई दिख रही थी।

सावरकर के बारे में क्या कहते थे वाजपेयी

सावरकर काफी देर तक उस खिड़की को देखते रहते, जहाँ से लटक कर पहले भी कैदियों ने आत्महत्या की थी। कई दिनों तक सोचने के बाद उन्होंने निश्चय किया कि अगर मरना ही है तो एक ऐसा कार्य कर के मरें, जिससे लगे कि वो सैनिक हैं।

सोच-विचार के बाद उन्होंने न सिर्फ अपने बल्कि कई अन्य कैदियों के मन से भी आत्महत्या का ख्याल निकालने में सफलता पाई। वहाँ उन्होंने कोल्हू पर ही संगठन का काम शुरू किया, बंदियों को शिक्षित करने का बीड़ा उठाया, उन्हें देशप्रेम सिखाया। अंग्रेज उन्हें बाकी बंदियों से दूर रखना चाहते थे। उन्हें बाद में रस्सी बाँटने का काम दे दिया गया था।

वहाँ अंडमान में कई राजबंदी रहा करते थे। सावरकर उनसे जब पहली बार मिले, तभी उन्हें उनके दुखों का अंदाज़ा हो गया था। उन्होंने अंग्रेजों के भय को दरकिनार कर के उनसे सबका परिचय लिया। उसी समय उन्होंने उन सभी से कहा था कि देखना, एक दिन जब भारत आज़ाद होगा तो इसी जेल में हम सबके पुतले लगे होंगे। सावरकर ने कहा-

“आज भले ही पूरे विश्व में हमारा अपमान हो रहा हो लेकिन देखना, एक दिन यही जगह एक तीर्थस्थल बन जाएगा और लोग कहेंगे कि देखों यहाँ हिन्दुस्तानी कैदी रहा करते थे। ऐसा ही होगा। ऐसा होना चाहिए।”

आज वो कमरा किसी तीर्थस्थल से कम नहीं है, जहाँ सावरकर (Veer Savarkar)रहा करते थे। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने भी वहाँ जाकर काफी देर तक ध्यान धरा था। सेल्युलर जेल में सावरकर की प्रतिमा लगी हुई है। वहाँ लोग जाते ही अभिभूत हो जाते हैं और सावरकर (Veer Savarkar) के त्याग को याद करते हैं। पोर्ट ब्लयेर विमानक्षेत्र का नाम ही वीर सावरकर अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डा है।

सावरकर का सपना तभी पूर्णतया सच होगा, जब हिन्दुओं के भीतर जाग्रति आएगी और भारत पुनः विश्वगुरु बनेगा। दिवंगत पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी हमेशा कहा करते थे कि हमें सावरकर को ठीक से समझने की ज़रूरत है।

वह अखिल भारत हिन्दू महासभा के 6 बार राष्ट्रीय अध्यक्ष चुने गए। 1937 में वे ‘हिन्दू महासभा’ के अध्यक्ष चुने गए और 1938 में हिन्दू महासभा को राजनीतिक दल घोषित किया था। 1943 के बाद दादर, मुंबई में रहे।

1 फरवरी 1966 को, सावरकर ने घोषणा की कि वह मृत्यु तक उपवास रखेंगे और इस कृत्य को ‘आत्मरक्षा’ करार देंगे. जिसके बाद उन्होंने खाना बंद कर दिया और दवाएँ भी त्याग दीं जिससे अंततः 26 फरवरी, 1966 को उनकी मृत्यु हो गई.