Subhash Chandra Bose Jayanti :नेताजी सुभाष चंद्र बोस आजाद भारत के पहले प्रधानमंत्री होते तो आज हमारा देश भारत कैसा होता

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Subhash Chandra Bose Jayanti
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वो लोग जिन्होंने आजादी का सपना देखा हो किसके लिए देखा होगा वो तो खुद फांसी के फंदो पर झूल गए लेकिन भारत माँ के लाल कभी रुके नहीं कभी झुके नहीं। नेताजी उन्ही में से एक थे ।जहाँ स्वतन्त्रता से पूर्व विदेशी शासक नेताजी

की सामर्थ्य से घबराते रहे, तो स्वतन्त्रता के उपरान्त देशी सत्ताधीश जनमानस पर उनके व्यक्तित्व और कर्तृत्व के अमिट प्रभाव से घबराते रहे।

सुभास चंद्र बोस भारत माँ का वो बेटा जो अपने देश को आजाद करने के लिए अकेले अपने दम पर आजाद हिन्द फौज के रूप एक सेना का गठन किया जिनके दिए नारो से आज भी हर हिन्दुस्तानी का रोम रोम देश भक्ति से भर जाता है। तुम मुझे खून दो में तुम्हे आजादी दूंगा। जय हिन्द। दिल्ली चलो


भारत को वर्ष 1947 में अंग्रेजों से आजादी मिल गई और इससे यानी की आजादी से ठीक 727 दिन पहले बोस रहस्यमय तरीके से लापता हो गए थे. अगर बोस रहस्यमय तरीके से लापता नहीं हुए होते तो भारतीय राजनीति का स्वरूप कैसा होता

और अगर पंडित जवाहर लाल नेहरू की जगह नेताजी सुभाष चंद्र बोस आजाद भारत के पहले प्रधानमंत्री होते तो आज हमारा देश भारत कैसा होता? में मानती हु की अगर ऐसा नहीं हुआ होता तो भारत की राजनीति बिल्कुल अलग होती और ये कहना गलत नहीं होगा कि सुभाष चंद्र बोस आजाद भारत के पहले प्रधानमंत्री भी हो सकते थे

मैने ऐसा क्यों कहा कि सुभास चंद्र बोस (Subhash Chandra Bose Jayanti) आजाद भारत के पहले प्रधानमंत्री भी हो सकते थे आइये अब समझते है

जब 21 अक्टूबर 1943 में आजादी से पहले सिंगापुर में सुभास चंद्र बोस (Subhash Chandra Bose Jayanti) ने भारतीय सरकार की स्थापना कर ली थी तो उस समय भारत में इसे नकार क्यों दिया गया? उस समय 11 देशों ने नेताजी ने इस शपथ को अपनी सहमति दी थी, जिनमें जापान, थाईलैंड, चीन , म्यानमार Burma, इटली, जर्मनी और फिलिपींस प्रमुख थे.

30 दिसम्बर 1943 में बोस ने अंडमान निकोबार में झंडा लहराते हुए ये कहा था कि आज से ये द्वीप ब्रिटिश राज से आजाद है. लेकिन बोस की इन उपलब्धियों को भारत में चर्चा का विषय ही नहीं माना गया.

Subhash Chandra Bose Jayanti: Netaji Subhash Chandra Bose Azad would have been the first Prime Minister of India, how would our country be today ?

यहां एक समझने वाली बात ये भी है कि इन घटनाओं के बाद देश के लोगों ने नेताजी को अपना प्रधानमंत्री मान लिया था. यानी आप कह सकते हैं कि वो देश के पहले Natural Prime Minister थे. लेकिन बाद में उनके रहस्यमय तरीके से लापता होने के बाद उनकी ये उपलब्धियां देश के इतिहास से गायब कर दी गईं.


आज मैने आपको ये भी बताने कि कोशिश की है की कैसे महात्मा गांधी और पंडित जवाहर लाल नेहरू के गठजोड़ ने भारत की आजादी में नेताजी के महत्व को कमजोर करने का काम किया. में कुछ समय से नेताजी के विषय पर अध्ययन कर रही हु इस दौरान मुझे जो भी जानकारिया मिली उनको ही आप तक पंहुचा रही हु

आजाद हिंद फौज के संस्थापक होने के साथ ही भारत की स्वतंत्रता में अहम भूमिका निभाने वाले लोगों में से एक थे

नेताजी का एक मात्र लक्ष्य था कि भारत को आजाद कराया जाए । वो किसी भी कीमत पर अंग्रेजों से किसी भी तरह का कोई समझौता नहीं करना चाहते थे।

गाँधी जी के विरोध के कारण नेताजी ने कांग्रेस अध्यक्ष पद से दे दिया त्यागपत्र
शुरुआत में नेताजी महात्मा गांधी के साथ देश को आजाद कराने की मुहिम से जुड़े रहे, और 19 फ़रवरी, 1938 को ‘भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस’ के ‘हरिपुरा अधिवेशन’ में नेताजी सुभाषचन्द्र बोस को अध्यक्ष चुना गया।

1939 ‘फ़ारवर्ड ब्लॉक’ नाम की एक नई पार्टी बनाई

फिर ‘त्रिपुरा अधिवेशन’ में सर्वसमति से नेताजी एक बार फिर कांग्रेस का अध्यक्ष चुने गए। परन्तु गाँधी जी के विरोध के चलते उन्होंने कांग्रेस के अध्यक्ष पद से त्यागपत्र दे दिया . इसके बाद नेताजी ने 1939 ‘फ़ारवर्ड ब्लॉक’ नाम की एक नई पार्टी भी बनाई ,

सुभाष चंद्र बोस को नजरबन्द किया गया

1939 ई. को द्वितीय विश्वयुद्ध प्रारम्भ हुआ। सुभाष चंद्र बोस ने भारत को द्वितीय विश्व युद्ध में शामिल किए जाने का विरोध किया, तो अंग्रेजों ने उन्हें जेल में डलवा दिया। लेकिन सुभाष जेल में निष्क्रिय रहना नहीं चाहते थे।

सुभाष चंद्र बोस का आमरण अनशन

सरकार को उन्हें रिहा करने पर मजबूर करने के लिये सुभाष ने जेल में आमरण अनशन शुरू कर दिया। हालत खराब होते ही सरकार ने उन्हें रिहा कर दिया। मगर अंग्रेज सरकार यह भी नहीं चाहती थी कि सुभाष युद्ध के दौरान मुक्त रहें। इसलिये सरकार ने उन्हें उनके ही घर पर नजरबन्द करके बाहर पुलिस का कड़ा पहरा बिठा दिया।

आजाद हिंद फौज

आज़ाद हिंद फौज की कमान सुभाष चंद्र बोस के हाथों में

इसी दौरान सुभाष चंद्र बोस जर्मनी भाग गए और वहां जाकर युद्ध मोर्चा देखा और साथ ही युद्ध लड़ने की ट्रेनिंग भी ली। यहीं नेताजी ने सेना का गठन भी किया। जब वो जापान में थे, तो आजाद हिंद फौज के संस्थापक रासबिहारी बोस ने उन्हें आमंत्रित किया।

डॉक्टर राजेंद्र पटोरिया अपनी किताब ‘नेताजी सुभाष’ में लिखते हैं कि, “4 जुलाई 1943 को सिंगापुर के कैथे भवन में एक समारोह में रासबिहारी बोस ने आज़ाद हिंद फौज की कमान सुभाष चंद्र बोस के हाथों में सौंप दी।”

इसके बाद नेताजी ने इस फौज के सर्वोच्च सेनापति की हैसियत से स्वतंत्र भारत की अस्थायी सरकार बनाई, जिसे कोरिया, चीन, जर्मनी, जापान, इटनी और आयरलैंड समेत नौ देशों ने मान्यता भी दी।

सुभाष चंद्र बोस ने ऐसे किया था आजाद हिंद फौज का गठन

सुभास चंद्र बोस (Subhash Chandra Bose Jayanti) ने आजाद हिंद फौज को काफी शक्तिशाली बनाया और आधुनिक रूप से फौज को तैयार करने के लिए जन, धन और उपकरण जुटाए। यहां तक कि नेताजी ने राष्ट्रीय आजाद बैंक और स्वाधीन भारत के लिए अपनी मुद्रा के निर्माण के आदेश दिए।

सुभाष चंद्र बोस की फौज में महिला रेजिमेंट

सुभाष चंद्र बोस ने अपनी फौज में महिला रेजिमेंट का गठन किया था, जिसे रानी झांसी रेजिमेंट भी कहा जाता था। इसकी कमान कैप्टन लक्ष्मी स्वामीनाथन को सौंपी गई थी।


सुभाष चंद्र बोस ने ‘फॉरवर्ड’ नाम से पत्रिका के साथ ही आजाद हिंद रेडियो की भी स्थापना की और जनमत बनया। इसके माध्यम से वो लोगों को आजाद होने के प्रति जागरूक करते थे।

आजाद हिंद फौज का आत्मसमर्पण

कोहिमा और इंफाल के मोर्चे पर कई बार इस भारतीय ब्रिटेश सेना को आजाद हिंद फौज ने युद्ध में हराया। लेकिन जब द्वितीय विश्व युद्ध समाप्त होने के बेहद करीब था, तभी 6 और 9 अगस्त 1945 को अमेरिका ने जापान के दो शहर हिरोशिमा और नागासाकी पर एटम बम गिरा दिये।

इसमें दो लाख से भी ज्यादा लोग मरे थे। इसके तुरंत बाद जापान ने आत्मसमर्पण किया। जापान की हार के साथ बेहद कठिन परिस्थितियों में आजाद हिंद फौज ने आत्मसमर्पण कर दिया और फिर इन सैनिकों पर लाल किले में मुकदमा भी चलाया गया।’

आजाद हिन्द फौज पर मुकदमा

नवम्बर 1945 में दिल्ली के लाल किले में आजाद हिन्द फौज पर चलाये गये मुकदमे ने नेताजी के यश में वर्णनातीत वृद्धि की और वे लोकप्रियता के शिखर पर जा पहुँचे। अंग्रेजों के द्वारा किए गये

विधिवत दुष्प्रचार तथा तत्कालीन प्रमुख राजनीतिक दलों द्वारा सुभाष के विरोध के बावजूद सारे देश को झकझोर देनेवाले उस मुकदमे के बाद माताएँ अपने बेटों को ‘सुभाष’ का नाम देने में गर्व का अनुभव करने लगीं। घर–घर में राणा प्रताप और छत्रपति शिवाजी महाराज के जोड़ पर नेताजी का चित्र भी दिखाई देने लगा।

आजाद हिन्द फौज के माध्यम से भारत को अंग्रेजों के चंगुल से आजाद करने का नेताजी का प्रयास प्रत्यक्ष रूप में सफल नहीं हो सका किन्तु उसका दूरगामी परिणाम हुआ।

क्युकी आजाद हिन्द फौज पर मुकदमा चलने की वजह से लोग अंग्रेजों पर भड़क उठे और जिस भारतीय सेना के दम पर अंग्रेज हमारी मातृभूमि पर राज कर रहे थे, वो ही सेना विद्रोह पर उतर आई।

इन सौनिकों के विद्रोह ने अंग्रेजों को विश्वास हो गया कि अब भारतीय सेना के बल पर भारत में शासन नहीं किया जा सकता और भारत को स्वतन्त्र करने के अलावा उनके पास कोई दूसरा विकल्प नहीं बचा। और फिर उन्होंने भारत छोड़ने की घोषणा कर दी।

आजाद हिन्द फौज को छोड़कर विश्व-इतिहास में ऐसा कोई भी दृष्टांत नहीं मिलता जहाँ तीस-पैंतीस हजार युद्धबन्दियों ने संगठित होकर अपने देश की आजादी के लिए ऐसा प्रबल संघर्ष छेड़ा हो।

उस समय आजाद हिंद फौज के खिलाफ देश के कई हिस्सों में मुकदमे दर्ज किए जा रहे थे. दिल्ली के लाल किले में आजाद हिन्द फौज पर चलाये गये मुकदमे ने नेताजी के यश में वर्णनातीत वृद्धि की और वे लोकप्रियता के शिखर पर जा पहुँचे। विधिवत दुष्प्रचार तथा तत्कालीन प्रमुख राजनीतिक दलों द्वारा सुभाष के विरोध के बावजूद सारे देश को झकझोर देनेवाले उस मुकदमे के बाद

माताएँ अपने बेटों को ‘सुभाष’ का नाम देने में गर्व करने लगीं

माताएँ अपने बेटों को ‘सुभाष’ का नाम देने में गर्व का अनुभव करने लगीं। घर–घर में राणा प्रताप और छत्रपति शिवाजी महाराज के जोड़ पर नेताजी का चित्र भी दिखाई देने लगा। आजाद हिन्द फौज के माध्यम से भारत को अंग्रेजों के चंगुल से आजाद करने का नेताजी का प्रयास प्रत्यक्ष रूप में सफल नहीं हो सका किन्तु उसका दूरगामी परिणाम हुआ।

क्युकी आजाद हिन्द फौज पर मुकदमा चलने की वजह से लोग अंग्रेजों पर भड़क उठे और जिस भारतीय सेना के दम पर अंग्रेज हमारी मातृभूमि पर राज कर रहे थे, वो ही सेना विद्रोह पर उतर आई। इन सौनिकों के विद्रोह ने अंग्रेजों को विश्वास हो गया

कि अब भारतीय सेना के बल पर भारत में शासन नहीं किया जा सकता और भारत को स्वतन्त्र करने के अलावा उनके पास कोई दूसरा विकल्प नहीं बचा। और फिर उन्होंने भारत छोड़ने की घोषणा कर दी।

आजाद हिन्द फौज को छोड़कर विश्व-इतिहास में ऐसा कोई भी दृष्टांत नहीं मिलता जहाँ तीस-पैंतीस हजार युद्धबन्दियों ने संगठित होकर अपने देश की आजादी के लिए ऐसा प्रबल संघर्ष छेड़ा हो।

हिंद फौज की मदद

जून 1945 में भारत में एक राष्ट्रीय लहर चल रही थी.लेकिन तब इसके खिलाफ एक ऐसा आंदोलन शुरू हुआ, जो भारत छोड़ो आंदोलन से भी बड़ा और प्रभावी था. उस समय आजाद हिंद फौज की मदद के लिए नगर पालिकाओं, प्रवासी भारतीयों, गुरुद्वारा समितियों बंबई और कलकत्ता के फिल्मी सितारों और कई तांगेवालों ने भी पैसे भेजे थे और संयुक्त पंजाब के बहुत से शहरों में उस साल दीवाली का त्योहार भी नहीं मनाया गया था.

जिनको ये लगता है की चरखे से आजादी मिली इनको के बार नेताजी के बारे में जरूर जानना चाहिए।


19 फ़रवरी, 1938 को ‘भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस’ के ‘हरिपुरा अधिवेशन’ में नेताजी सुभाषचन्द्र बोस को अध्यक्ष चुना गया। कांग्रेस अध्यक्ष रहते हुए अपने एक साल के कार्यकाल में सुभाष चंद्र बोस ने आजाद भारत का एक ऐसा वृक्ष खड़ा किया,

जिसकी पांच शाखाएं थीं. पहला संगठन का स्वरूप, दूसरा आक्रामक आंदोलन का विचार, तीसरा आजादी के लिए संघर्ष, चौथा अंग्रेजों के खिलाफ रणनीति और 5वां था दूसरे विश्व युद्ध का फायदा उठा कर आजादी हासिल करना.

बोस के विचार इतने शक्तिशाली थे कि कांग्रेस में ही उनके शत्रु पैदा होने लगे और महात्मा गांधी ने भी बोस के विचारों से खुद को अलग कर लिया था इसी का नतीजा रहा कि 1939 में जब बोस ने कांग्रेस का फिर से अध्यक्ष बनने के लिए अपनी दावेदारी पेश की तो उनके खिलाफ महात्मा गांधी और जवाहर लाल नेहरू का गठजोड़ बना जिसने धीरे धीरे बोस के महत्व को कमजोर करने का काम शुरू किया.

उस समय बोस का कहना था कि कांग्रेस अध्यक्ष पद का चुनाव, विभिन्न उम्मीदवारों द्वारा विभिन्न समस्याओं और कार्यक्रमों पर लड़ा जाना चाहिए. लेकिन बोस की इस बात को नकार दिया गया और बोस की बात को नकारने वालो में डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद, सरदार पटेल और जेबी कृपलानी थे इन सभी ने 24 जनवरी 1939 को बोस के खिलाफ अपना मत जाहिर किया और महात्मा गांधी का साथ दिया.

इस गठजोड़ ने बोस के खिलाफ पट्टाभि सीतारमय्या को अपना उम्मीदवार घोषित कर दिया लेकिन महात्मा गांधी के विरोध के बावजूद बोस ये चुनाव जीत गए और पट्टाभि सीतारमय्या की हार हुई जिससे नाराज गांधी जी के गठजोड़ ने सुभास चंद्र बोस (Subhash Chandra Bose Jayanti) के महत्व को कम करने के लिए राजनीति शुरू हो गई. इस बात का दुस्प्र्भाव यह हुआ की बोस को कांग्रेस नेताओं और संस्थाओं का उन्हें सहयोग मिलना बंद हो गया

जिसकी वजह से उन्हें इस्तीफा भी देना पड़ा और तब उन्होंने फॉरवर्ड नामक एक पार्टी भी बनाई जिसका मकसद कांग्रेस से अलग देश की आजादी के लिए संघर्ष करना था. साथ ही सुभाष चंद्र बोस ने ‘फॉरवर्ड’ नाम से पत्रिका और आजाद हिंद रेडियो की भी स्थापना की। इसके माध्यम से वो लोगों को आजाद होने के प्रति जागरूक करते थे।

बोस ने एक बार कहा था कि कांग्रेस दक्षिणपंथी विचारों की एक पार्टी है जिसने अंग्रेजों से सत्ता के लिए समझौता कर लिया है और संभावित मंत्रियों की सूची भी तैयार कर ली. इसका बोस का मानना था कि उस समय कांग्रेस की राष्ट्रीय इकाई में कई बड़े नेता ऐसे थे जिनका सरोकार आजादी से नहीं, सिर्फ सत्ता के लालच से था. और आज भी आप देखा सकते है कांग्रेस इसी विचारधारा से चल रही है

बाद में अंग्रेज सरकार ने सुभाष सहित फॉरवर्ड ब्लॉक के सभी मुख्य नेताओं को कैद कर लिया। द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान सुभाष जेल में निष्क्रिय रहना नहीं चाहते थे। सरकार को उन्हें रिहा करने पर मजबूर करने के लिये सुभाष ने जेल में आमरण अनशन शुरू कर दिया। हालत खराब होते ही सरकार ने उन्हें रिहा कर दिया। मगर अंग्रेज सरकार यह भी नहीं चाहती थी कि सुभाष युद्ध के दौरान मुक्त रहें। इसलिये सरकार ने उन्हें उनके ही घर पर नजरबन्द करके बाहर पुलिस का कड़ा पहरा बिठा दिया।

अब मै आपको सिर्फ तीन पॉइंट ऐसे बताऊगी जिससे आप समझा जायेगे की सुभास चंद्र बोस (Subhash Chandra Bose Jayanti) और महात्मा गांधी के विचारो में बहुत अंतर था या यह भी कह सकते है की गांधी और नेहरू के गठजोड़ ने सुभास चंद्र बोस के विचारों को वो सम्मान नहीं दिया जो उन्हें मिलना चाहिए था

जब 1939 में दूसरा विश्व युद्ध शुरू हुआ तब अंग्रेजों की भारत पर पकड़ कमजोर होने लगी थी और बोस उस समय अंग्रेजों के खिलाफ बड़ा आंदोलन करना चाहते थे. परन्तु नुस समय महात्मा गांधी और नेहरू ने बोस के इस विचार का समर्थन नहीं किया

लेकिन 3 साल बाद महात्मा गांधी और नेहरू प्रभावित होते है और तब गांधीजी ने तब करो और मरो का नारा भी दिया. अब आप समझाये उस समय बोस के कहने पर मना कर दिया और बाद में बोस के विचारों को ही अपनाना पड़ा.यह थी पहली घटना अब दूसरी घटना को भी सुननये

  • सुभास चंद्र बोस (Subhash Chandra Bose Jayanti) का कहना था कि आजादी के लिए सही समय का इंतजार करना गलत रणनीति होगी. लेकिन यहाँ पर भी गांधीजी ने उनकी बात नहीं मानी और कह दिया कि इसके लिए कांग्रेस में संगठन को मजबूत करना होगा
  • जिसके लिए लोगों को ट्रेनिंग देनी होगी. वर्ष परन्तु 1942 में वो इसके लिए तैयार हो गए और तब भारत छोड़ो आंदोलन उन्होंने शुरू किया यहाँ पर भी महात्मा गांधी ने बोस के इस विचार को पहले नकार दिया बाद में जब १९४२ में भारत छोड़ो आंदोलन शुरू किया तब इसका श्रेय बोस को नहीं दिया गया. जबकि यह विचार बोस का ही था.
  • अब बात करते है लास्ट पॉइंट की यानी की गांधी और नेहरू के गठजोड़ ने सुभास चंद्र बोस (Subhash Chandra Bose Jayanti) के विचारो को तब नहीं माना और बाद में उन्ही पर कार्य किया इसके लिए इस लास्ट पॉइंट को समझये गांधीजी ने वर्ष 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन शुरू किया,

उसके लिए बोस वर्ष 1939 में ही कह दिया था . 1939 में सुभाष चंद्र बोस भारत की आज़ादी के लिए बड़ा आंदोलन शुरू करना चाहते थे, लेकिन तब गांधीजी ने कहा कि इससे देश में दंगे हो जाएंगे ये रणनीति सही नहीं है .


द्वितीय विश्वयुद्ध में जापान की हार के बाद, नेताजी को नया रास्ता ढूँढना जरूरी था। उन्होने रूस से सहायता माँगने का निश्चय किया था। 18 अगस्त 1945 को नेताजी हवाई जहाज से मंचूरिया की तरफ जा रहे थे। इस सफर के दौरान वे लापता हो गये। इस दिन के बाद वे कभी किसी को दिखायी नहीं दिये

अब तो आप समझा गए होंगे की योग्य होने के बावजूद भी सुभाष चंद्र बोस से उनका श्रेय छीन लिया गया. साथ ही हमें यह भी समझना चाहिए की सुभाष चंद्र बोस उस समय भारत की परिस्थितियों को महात्मा गांधी और नेहरू से ज्यादा बेहतर समझ रहे थे

वर्ष 1956 में ब्रिटेन के पूर्व प्रधानमंत्री लॉर्ड क्‍लीमेंट एटली आये थे तब उन्होंने पश्चिम बंगाल के उस समय के गर्वनर पीबी चक्रवर्ती से मुलाकात की थी. और पूछा था कि जब 1942 में अंग्रेजों के खिलाफ भारत छोड़ो आंदोलन शुरू हुआ और 1944 में बिना परिणाम के खत्म हो गया,

तो अंग्रेज भारत छोड़ने के लिए तैयार क्यों हो गए ? धयान दे ये बात आजादी के 9 वर्ष बाद हुयी थी और यह बात ब्रिटेन के पूर्व प्रधानमंत्री और पश्चिम बंगाल के उस समय के गर्वनर की है इस बात को मेजर जर्नल जी डी बक्सी ने बोस an इंडियन सेमुराय किताब में लिखा है


इस सवाल पर एटली ने कहा था कि इसके पीछे सुभाष चंद्र बोस और उनकी आजाद हिंद फौज थी, जिसने अंग्रेजों को भारत छोड़ने के लिए मजबूर किया. इस पर पीबी चक्रवर्ती ने एक और सवाल पूछा,

तो फिर भारत की आजादी में महात्मा गांधी की क्या भूमिका थी. इसके जवाब में एटली ने कहा था कि महात्मा गांधी का भारत की आजादी में योगदान बहुत कम था.


जून 1945 में भारत में एक राष्ट्रीय लहर चल रही थी.लेकिन तब इसके खिलाफ एक ऐसा आंदोलन शुरू हुआ, जो भारत छोड़ो आंदोलन से भी बड़ा और प्रभावी था.

स्वातन्त्र्यवीर सावरकर ने स्वतन्त्रता के उपरान्त देश के क्रांतिकारियों के एक सम्मेलन का आयोजन किया था और उसमें अध्यक्ष के आसन पर नेताजी के तैलचित्र को आसीन किया था। यह एक क्रान्तिवीर द्वारा दूसरे क्रान्ति वीर को दी गयी अभूतपूर्व सलामी थी।

कोहिमा का युद्ध (4 अप्रैल 1944 से 22 जून 1944 तक) द्वितीय विश्वयुद्ध के समय 1944 में ब्रितानी भारतीय सेना तथा सुभाष चन्द्र बोस के नेतृत्व में आजाद हिन्द फौज एवं जापान की संयुक्त सेना के बीच कोहिमा के आसपास में लड़ा गया एक भयंकर युद्ध था। इस युद्ध में जापानी सेना को पीछे हटना पड़ा था और यह एक महत्वपूर्ण मोड़ सिद्ध हुआ।

यह युद्ध4 अप्रैल 1944 से 22 जून 1944 तक तीन चरणों में लड़ा गया था। इस युद्ध को ब्रिटिश सेना से जुड़ी अब तक की सबसे बड़ी लड़ाई घोषित किया गया है। इस निर्णायक युद्ध में आज़ाद हिन्द फौज़ द्वारा मारे गये सैनिकों की स्मृति में ब्रिटिश साम्राज्य द्वारा एक युद्ध स्मारक (अं: सीमेट्री) बना दिया गया है जिसकी देखरेख कॉमनवेल्थ करता है।

कोहिमा के निवासियों के अनुसार द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान जापानियों ने नागालैंड पर भयंकर हमला किया था जिसमें बहुत बड़ी संख्या में सैनिक और अधिकारी मारे गये थे।

हमले में मारे गये इन सभी सैनिकों को गैरीसन हिल पर दफना दिया गया था। बाद में उनकी स्मृति में 1421 समाधियों का निर्माण कर दिया गया। स्थानीय निवासी उन शहीद सैनिकों को अपनी श्रद्धांजलि देने आते हैं। कोहिमा आने वाले पर्यटकों को भी ये समाधियाँ दिखायी जाती हैं।


“जब तुम घर जाओ तो हमारे बारे में सबको बताना और यह कहना कि उनके भविष्य के लिये हमने अपना वर्तमान बलिदान कर दिया

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